फूलों का त्यौहार है सरहुल

Tuesday, October 8, 20130 comments

किसी भी आदिवासी समुदाय की पहचान उसकी संस्कृति से होती है। और इन संस्कृतियों की पहचान उसके पर्व-त्यौहारों से होती हैं। झारखण्ड के आदिवासियों का सबसे बड़ा त्यौहार सरहुल है। ये एक ऐतिहासिक पर्व है तथा इसकी परंपराएं बहुत भिन्न हैं।  इस पर्व में पाहन जो गांव का पुजारी होता है, उसके द्वारा ही सारी परंपराएं सम्पन्न की जाती हैं। पर्व का उद्देश्य होता है सृष्टि संबंध और उसमें आदिवासियों की भूमिका को प्रतीकात्मक पुनरावृत्ति द्वारा कायम रखना।

 सरहुल को मनाने की तैयारी आदिवासी बहुत दिन पहले से करते हैं। प्रकृति के इस पर्व के दिन लोग अपने घर आंगन में सरई फूल लगाकर अपने घर आंगन को पवित्र करते हैं। सामुदायिक अनुष्ठान को पूरा करने के लिए आगामी त्यौहारों की तैयारी करते हैं। पहले दिन उपवास,दूसरे दिन पूजा-पाठ, तीसरे दिन खान-पान तथा फूलखोसी और चौथे दिन अखड़ा में सामूहिक रूप से नाच-गान किया जाता है और त्यौहार के लिए स्वागत गीत गाए जाते हैं।

कहा जाता है कि एक दिन धरती मां की बेटी बिंदी स्नान करने नदी गई थी पर वह लौट कर नहीं आयी जिससे धरती मां परेशान हो गई। उसने अपने दूतों को चारों दिशा में बिंदी को ढूंढ़ने के लिए भेज दिया, किन्तु बिंदी का कहीं कोई पता नहीं चला। धरती मां काफी निराश रहने लगी। सृष्टि विनाश की ओर बढ़ने लगी। सारे पेड़-पौधे सूख गए। खेतों में दरार पड़ने लगी। इस बीच दूतों ने हर जगह बिंदी की खोज की। अंततः पता चला कि बिंदी पाताल लोक में यमराज के पास है।

यह सुनते ही दूत पाताल लोक यमराज के पास पहुंचे। वहां जाकर देखा कि बिंदी यमराज के पास खेल रही थी है। दूतों ने यमराज से आग्रह किया किया कि वह बिंदी को लेने आए हैं। वह धरती मां की इकलौती संतान है। इसके विरह में सृष्टि का संतुलन अस्त-व्यस्त हो गया है। बिंदी के बिना धरती मां की मृत्यृ हो जाएगी इसलिए आप से विनती है कि आप कृपया करके बिंदी को हम लोगों को सौंप दीजिए। किन्तु यमराज राजी नहीं  हुए।

यमराज ने कहा जो एक बार पाताल लोक में आ जाता है वह पुनः पृथ्वी लोक में नहीं जा सकता है। किन्तु दूतों द्वारा काफी निवेदन करने के बावजूद यमराज इस बात पर राजी हुए आधे समय बिंदी धरती लोक में रहेगी तो आधे समय पाताल लोक में रहेगी।

बिंदी के आगमन से पूरे पृथ्वी लोक में खुशी की लहर दौड़ गई। पौधों में नए-नए पत्ते आ जाते हैं। फूल खिल जाते हैं । धरती धन-धान्य से भरपूर हो जाती है। चारों तरफ हरियाली छा जाती है। इसी खुशी में लोग पर्व मनाने लगते हैं।

सखुआ पेड़ की भी कहानी अलग हैं। पुरखों की कथा के अनुसार- कहा जाता है कि एक दिन की बात है गांव के बच्चे मवेशियों को चराने के लिए जंगल गए थे। बच्चों को देख सरना मां अपने दर्शन देती है। यह देखकर बच्चे बहुत खुश हो जाते हैं। तभी एक भूखा राक्षस सरना मां को देखकर उसे खाने आ जाता है। सभी बच्चे छिप जाते हैं। सरना मां भी वहीं के सखुआ पेड़ में छिप जाती है। राक्षस के काफी प्रयत्न करने के बावजूद भी वह सफल नहीं होता है।

राक्षस नित्य प्रतिदिन उस सखुआ पेड़ के पास जाता है। सरना मां भी राक्षस को प्रलोभन देती थी। कभी वह दर्शन देती तो कभी वह विलीन हो जाती। ये देखकर राक्षस काफी आक्रोश में आ जाता था। राक्षस के इस तमाशे को रोज वे चरवाहे देखते थे। अतः एक दिन बच्चों ने निर्णय लिया कि ये राक्षस रोज हमारी सरना मां को परेशान करता है। क्यों न हम लोग जानवर का भेष बदलकर राक्षस का मुकबला करेंगे। सभी बच्चे इस पर राजी हो गए।

दूसरे दिन जब वह राक्षस फिर सखुआ पेड़ के पास आया तब बच्चों ने ललकारा कि हे! ‘तुम दो गोड़वा क्यों खाते हो, चार गोड़वा खावो’ यह सुनते ही राक्षस ने बच्चों के ऊपर हमला कर दिया। किन्तु सभी बच्चों ने मिलकर राक्षस को मार गिराया। इसी उपलक्ष्य में बच्चे खुशी से सखुआ पेड़ के फूल को अपने कानों में खोसते हैं तथा सखुआ पेड़ को नमन करते हैं। इस तरह से सखुआ पेड़ में ही सरना मां का वास माना जाता है। इसलिए आदिवासी लोग सखुआ पेड़ की पूजा करते हैं।

इस त्यौहार का पहला दिन ‘मछली तथा केकड़ा’ का होता हैं। केकड़ा पृथ्वी का पुरखा है। कहा जाता है कि पृथ्वी का सृजन मछली तथा केकड़ा के प्रयास से ही हुआ था। पहले पूरी पृथ्वी पर पानी ही पानी था। जिससे केकड़ा ने ही समुद्र की निचली तह की मिट्टी को ऊपर लाकर पृथ्वी का निर्माण किया। इसलिए पर्व मनाने से एक दिन पहले मछली तथा केकड़ा को सम्मान दिया जाता है। तथा इसे भोजन में शामिल किया जाता है।

एक केकड़ा तथा एक मछली को चूल्हे के पास टांग दिया जाता है ताकि उसका आर्शावाद घर में बना रहे। इन्हीं सब मान्यताओं के साथ हमारे आदिवासी सरहुल को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। और यह उम्मीद करते हैं कि सरहुल फूल की तरह ही हमारे जीवन सदैव ही  खिला रहे।

-बरखा लकड़ा
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