मौखिक इतिहास की खोज में

Thursday, September 5, 20131comments

अक्सर, जब कभी हम इतिहास की बात करते है तब हम यह सोचते हैं कि यह मोटी-मोटी किताबों, दस्तावेजों, और पुस्तकालय के ग्रंथों में मिलेगा। लेकिन यह तो हमारे आसपास भी है। हमें सिर्फ बुजुर्ग और अनुभवी लोगों से सवाल पूछना है और वे हमें बताएंगे, अपने प्रत्यक्ष अनुभव सुनाएंगे, कबीर की तरह आंखो देखी बताएंगे। वे सुनी-सुनाई बातें ही नहीं, आपबीती बताएंगे। याददाश्त के आधार पर बचपन और अपने काम-धंधे से जुड़े व अपने जमाने के किस्से बताएंगे। इसे मौखिक इतिहास कह सकते है। और यह सब आंचलिक भाषा में ही है और उसे साक्षात्कार के माध्यम से जाना जा सकता है।

बरसों से खेती करने वाले किसान हमें बताएंगे यहां परंपरागत खेती-किसानी कैसी थी, क्या-क्या फसलें उगाई जाती थीं, कब बोई जाती थी, किस तरह की मिट्टी मे बोई जाती थी, उसके तरीके क्या थे? हल-बक्खर कब चलाना है, बोवनी कब करनी है। जब सिंचाई की व्यवस्था नहीं हुआ करती थी तब कौन सी फसलें उगाई जाती थी? सिंचाई आने के बाद फसलचक्र में क्या बदलाव आया? वे बताएंगे, बीमार आदमी का इलाज कैसे किया जाता है, किसी की अगर हड्डी टूट जाती है तो कौन सी जड़ी लगाई जाती है, हसिया या कुल्हाड़ी की चोट पर कौन से पेड़ की छाल पीसकर लगाते हैं?

वे बताएंगे कि बारिश कम क्यों होती है? पहले झड़ी लगती थी और अब क्यों पानी नहीं गिरता ? सदानीरा नदियों का पानी क्यों सूख गया? बारहमासी नदियां अब बरसाती नालों में कैसे बदल गई? वे साल दर साल क्यों दम तोड़ रही हैं? ज्यादा कुरेदेंगे तो वे यह भी बता सकते हैं ये सूखी नदियां पुनर्जीवित कैसे हो सकती हैं?  भूजल क्यों टाइम बम की तरह क्यों नीचे चला जा रहा है? ऐसी कई जानकारियां आपको अपने इलाके के बारे में सहज ही मिल जाएगी।

हमें ऐसे ढेरों किस्से मिल जाएंगे जिनसे हम अनजान थे। हमें लोकविद्या के ऐसे कई सूत्र हाथ लग जाएंगे, जिससे हम अपना जीवन संवार सकते हैं, बेहतर कर सकते हैं। क्योंकि आधुनिक रासायनिक खेती मुनाफे से संचालित है, जबकि परंपरागत खेती भोजन की जरूरत पूरी करने के लिए विकसित हुई थी। उसके तौर-तरीके किसानों ने ही विकसित किए थे। यह सब हमें किसी खेत की मेढ़ पर या किसी पेड़ की छांव में बैठकर बतियाते पता चल सकता है। इस मामले में हम अपने आपको खुशकिस्मत समझेंगे कि हमारे देश के किसान या बुजुर्ग थोड़ी-बहुत पहचान के बाद अपने दुख-दर्द, अनुभव और आपबीती बिना झिझक के बताते हैं। वे धाराप्रवाह बताते चले जाते हैं कि ऐसा लगेगा ही नहीं कि हम उनसे पहली बार बात कर रहे हैं।

अनपढ़ और अज्ञानी में फर्क करना जरूरी है। विद्याअर्जन के दो स्त्रोत माने जाते हैं। एक है किताबी और दूसरा है अनुभव आधारित। इस इलाके के लोग मौखिक परंपरा के वाहक हैं, लिखित नहीं। शिक्षा ही नहीं थी । आजादी के बाद हम पहली या दूसरी पीढ़ी शिक्षित हो रही है। लेकिन जो अनपढ हैं, वे अज्ञानी नहीं थे। उन्होंने खेती-किसानी, पानी का काम, तालाब, बाबड़ी, कुओं का निर्माण, जड़ी-बूटियों की जानकारी, बांस के सामान सब कुछ अनुभव से सीखा और बढ़ाया। होशंगाबाद जिले के पिपरिया शहर में पिछले कुछ वर्षो से जनजीवन से सीधे जुड़े जनमुद्दों पर मैंने गांव के कई लोगों से बातचीत की है। यह बातचीत स्थानीय भाषा बुंदेली में की गई। यह सहज संवाद नहीं, साक्षात्कार था जिसमें मुद्दों का एक फेमवर्क होता है और बातचीत आगे बढ़ती जाती है। लेकिन कभी-कभी मुझें प्रश्नावली को एक तरफ उनकी ही किसी बात के सिरे को पकड़कर आगे बात करनी पड़ती है। ये मुद्दे थे- खेती-किसानी, आदिवासी और विस्थापन पर्यावरण-जल, जंगल इत्यादि। मैंने अपना एक पूरा अध्ययन आदिवासी और विस्थापन पर केंद्रित किया और इस पर एक पुस्तिका सतपुड़ा के बाशिंदे भी प्रकाशित हो चुकी है।

इस समय खेती-किसानी पर अभूतपूर्व संकट मंडरा रहा है। बार-बार किसान फसलचक्र बदल रहे हैं। कभी सोयाबीन तो कभी गन्ना। सोयाबीन में लगातार घाटा हो रहा है। पहले सोयाबीन यहां काफी फला-फूला है, लेकिन इल्ली के प्रकोप व विदेशों से तेल आयात होने के कारण भाव गिर गए। एक-दो सालों से गन्ने की ओर किसान मुड़े लेकिन समय पर उचित दाम नहीं मिलने से किसानों को निराशा ही हाथ लगी। मैदानी क्षेत्र में पहले की हल-बैल की खेती की जगह ट्रेक्टर से खेती हो रही है। हारबेस्टर से कटाई हो रही है जिससे लोगों का रोजगार भी प्रभावित हुआ है।

जबकि जंगल क्षेत्र में अब भी किसान अपनी हल-बैल और कुछ हद तक देसी बीजों की खेती कर रहे है। यहां खेती बारिश पर निर्भर है यानी सूखे की खेती है। इस इलाके में उतेरा या गजरा पद्धति प्रचलन में है। इसके तहत् किसान एक साथ चार-पांच फसलों को मिलाकर बोते हैं। जैसे धान के साथ तुअर, तिल्ली, ज्चार इत्यादि। किसानों का कहना है कि अगर हमारी एक फसल मार खा जाती है तो दूसरी से इसकी कमी पूरी हो जाती हे। कई फसलें एक साथ बोने से पोषक तत्वों का चक्र बराबर चलता रहता है। अनाज के साथ फलियां बोने से नत्रजन आधारित बाहरी निवेषों की जरूरत कम पड़ती है। फसलों के डंठल तथा पुआल उन मवेशियों को खिलाने के काम आती है जो जैव खाद पैदा करते है। धान की करधना, झीना, भदेल जैसी कम पानीवाली किस्में भी प्रचलन में है। कम पानी या पानी नहीं होने के कारण तुअर और चना की फसल प्रमुख रूप से होती है।

यह इलाका विपुल प्राकृतिक संपदा का धनी है। यहां से नर्मदा नदी होकर गुजरती है और यहां कई नदी-नालों का उद्गम स्थल भी हैं। सतपुड़ा की रानी पचमढ़ी जैसा पर्यटन स्थल भी हमारे कार्यक्षेत्र में है। इस इलाके में कभी गोंड राजाओं का शासन हुआ करता था, जिनके भव्य किले खंडहर के रूप में शेष है। बनखेड़ी के पास फतेहपुर गोंड राजाओं का केन्द्र था। वहां के टूटे-फूटे किले उसके आबाद होने के प्रमाण माने जा सकता हैं। यहां  तीन मोहल्ले थे जिसमें से नदीपुरा और टेकरीपुरा में अब भी कुछ लोग रहते हैं। बीचपुरा पूरी तरह उजड़ गया है। और इसी इलाके में हाल ही में विस्थापित आदिवासियों ने सहकारिता का अनूठा प्रयोग किया है। इस सहकारिता के प्रयोग को चलाने में आदिवासियों ने प्रमुख भूमिका निभाई, जो ज्यादातक अनपढ थे। लेकिन अज्ञानी नहीं , जो प्राय‘ मान लिया जाता है।

अनपढ़ और अज्ञानी में फर्क करना जरूरी है। विद्याअर्जन के दो स्त्रोत माने जाते हैं। एक है किताबी और दूसरा है अनुभव आधारित। इस इलाके के लोग मौखिक परंपरा के वाहक हैं, लिखित नहीं। शिक्षा ही नहीं थी । आजादी के बाद हम पहली या दूसरी पीढ़ी शिक्षित हो रही है।  लेकिन जो अनपढ हैं, वे अज्ञानी नहीं थे। उन्होंने खेती-किसानी, पानी का काम, तालाब, बाबड़ी, कुओं का निर्माण, जड़ी-बूटियों की जानकारी, बांस के सामान सब कुछ अनुभव से सीखा और बढ़ाया।  इसीलिए अनपढ़ आदिवासी भी सहकारिता का अनूठा प्रयोग चला पाए। यह कौशल अनुभव से प्राप्त होता है। जो लोकविद्या का भी स्त्रोत है।

हाल के वर्षो में इतिहासकारों ने भी मौखिक परंपरा द्वारा स्थानीय इतिहास के विभिन्न पहलुओ पर महत्वपूर्ण जानकारी एकत्र की है। राजनीति शास्त्रियों और नृतत्वशास्त्रियों ने अपने अध्ययन के लिए साक्षात्कार का उपयोग किया है। स्थानीय वृद्ध लोगों से बातचीत कर आदिवासी पारंपरिक जीवनशैली व संस्कृति के अध्ययन के साथ ही प्राकृतिक संसाधनों-जल, जंगल, जमीन के पारंपरिक उपयोग, स्वामित्व व प्रबंधन के बारे में जाना जा सकता है। लोकविज्ञान चाहे वह खेती व सिंचाई से संबंधित हो या जंगल में पाए जानेवाले औषधि या पौधे हों, आज भी वृद्ध लोगों के पास सुरक्षित है। बहरहाल, मेरे लिए बरसों बाद अपने गृह क्षेत्र को नजदीक से जानने का यह काम काफी रोमांचक, दिलचस्प और ज्ञानवर्द्धक है।
-बाबा मायाराम
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February 25, 2019 at 2:44 PM

helped me in my 1st semester exam of history(H) M.A.
at R&DJ college ,tilkamanjhi university,bgp(bihar0)

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