समाजवादी कर्मयोगी

Tuesday, April 20, 20100 comments

जब कभी भी मेरा पचमढ़ी जाना होता है। मोतीलाल जैन जी जरूर मिलता हूं। इस बार वे कुछ व्यथित दिखे। उनकी पीडा निजी नहीं, सार्वजनिक थी। कहने लगे हम पहले रोटी, कपडा और मकान, मांग रहा है हिन्दुस्तान, का नारा लगाया करते थे, यह आज भी प्रासंगिक है। आज भी हिन्दुस्तान की बुनियादी समस्याएं वहीं हैं, जो पहले थी। आज भी दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे, कुपोषित, अशिक्षित और बेघर लोग भारत में रहते हैं। देश के ३ वर्ष से छोटे बच्चों के लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं।

८४ साल के वयोवृद्ध मोतीलाल जी आजादी की लडाई के सिपाही तो थे ही, बाद भी लगातार सक्रिय रहे। समाजवादी सिद्धांतों में विशवास करने वाले मोतीलाल जी कहते हैं ”उनके कई साथी इधर-उधर चले गए लेकिन वे कहीं नहीं गए। क्योंकि समाजवाद से ही देश में बराबरी का समाज बन सकता है।” उनकी राजनीति में खासतौर से रचना के कामों में विशेष रूचि रही है और अब भी है।

सतपुडा की रानी पचमढ़ी देश-दुनिया में पर्यटन के लिए मशहूर है। यहां प्रकृति की अपनी ही निराली छटा है। सतपुडा की सबसे बडी चोटी धूपगढ , महादेव और कई मनोरम दृद्गय हैं। महादेव की चोटी पर्वतारोहियों के लिए बहुत आकर्षक है। ऐतिहासिक पांडव गुफाएं हैं, जिनके नाम पर इसका नाम पचमढ़ी पडा है। जंगल और पहाडों के बीच कल-कल झरनों को बहते अविराम देखते ही रहो। बहुत सुकून मिलता है। शंत और शोंरगुल से दूर। ऊंचे-ऊंचे पहाड वृक्षों और लताओं से ढके हुए। बहुत ही मनमोहक। सतपुडा की पर्वत श्रृंखला अमरकंटक से असीरगढ तक फैली हुई हैं। दक्षिण में सतपुडा के पर्वत नर्मदा नदी के समानांतर पूर्व से पशिचम की ओर चलते हैं।

मोतीलाल जी कर्मभूमि पचमढ़ी रही है। आजादी से पहले वे हस्तलिखित पत्रिका चिनगारी निकाला करते थे और उसे बारी-बारी से पढने को देते थे। उस समय कोई प्रेस तो था नहीं। समाचार पत्र भी सिर्फ दो आते थे कर्मवीर और विशवामित्र। लोगों को आजादी की लडाई की जानकारी देने के उद्‌देशय से चिनगारी शुरू की जिसमें अधिकांश खबरें समाचार पत्रों से ली जाती थी। एक महीने में यह पत्रिका ३० घरों में पढी जाती थी।

राजनैतिक चेतना जगाने के लिए उन्होंने जनता पुस्तकालय खोला। उनका मानना है कि जब तक आदमी पढेगा नहीं तब तक पूरी समझ नहीं बन पाएगी। इस पुस्तकालय में साहित्य के अलावा राजनैतिक पुस्तकें भी होती थीं। मनमथनाथ गुप्त, आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया आदि कई लेखकों व विचारकों की पुस्तकें थी। इसमें एक नियम यह था कि जो भी सदस्य बडे शहरों में किसी काम से जाए, वह वहां से पुस्तकें लेकर आए । इस तरह पांच सौ से ज्यादा पुस्तकें पुस्तकालय में हो गई थीं। मजदूरों को जोड ने के लिए मनोरंजन क्लब आदि चलाते थे, जहां राजनैतिक चर्चाएं होती थीं। वे अनपढ लोगों को पढाते थे।

वे शराबबंदी आंदोलन चलाते थे। जिस किसी के घर में कच्ची द्गाराब बनने की खबर मिलती, वहां पहुंचकर शराब बनाने के लिए इस्तेमाल में आने वाले मिट्‌टी के बर्तनों को तोड देते थे। इससे लोग स्वस्थ रहते थे और उनके पास कुछ पैसे भी होते थे। अन्यथा लोग अपनी कमाई शराब में गंवा देते थे तो घर में भोजन के लिए जरूरी सामग्री खरीदने के लिए पैसे भी नहीं होते थे। इसी प्रकार वे समय-समय पर स्वच्छता अभियान चलाते थे।
महाशिवरात्रि पर्व पर पचमढी में मेला लगता था। उसमें एक स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं की टोली होती थी। उसमें मोतीलाल जी बढ -चढ कर हिस्सा लेते थे। व्यवस्था में मदद के लिए एक शिविर लगता था। कार्यकर्ताओं की लाल रंग की विशेष ड्रेस हुआ करती थी। हेलमेट सिर पर लगाते थे। यात्रियों और श्रद्धालुओं की व्यवस्था का पूरा खयाल रखा जाता था।

मोतीलाल जी बताते हैं समाजवादी पचमढ़ी में जनता थाना चलाते थे। इसका उद्‌देद्गय आपस के झगडो का आपसी सहमति से निपटारा करना होता था। यह बहुत सफल रहा। लोग इसमें अपनी शिकायत दर्ज कराते थे। दूसरे पक्ष को बुलाया जाता था और समझौता करने की कोशिश की जाती थी। वे कहते हैं उस दौरान थाने में दर्ज मामलों की संखया नगण्य हो गई थी। इस बात से पुलिस के आला अफसल आशचर्यचकित थे।

मोतीलाल जी को जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया सरीखे समाजवादी नेताओं का सानिध्य व स्नेह मिल चुका है। वे पचमढी समाजवादी अधिवेशन में भी रहे। और इस अधिवेशन के बाद लोहिया यहां दो माह तक रहे और उन्होंने यहां रहकर किताब एक लिखी। इस तरह समाजवाद से गहरा जुडाव हुआ और वे आज भी समाजवाद को ही लोगों की समस्याओं का समाधान मानते हैं।

वे याद करते हैं इस इलाके के १८५७ की लडाई में शामिल रहे भभूतसिंह को। वे कहते हैं अंग्रेज आदिवासियों से अंडा-मुर्गी मांगते थे। उनका अपमान करते थे। भभूतसिंह ने इसका डटकर विरोध किया। वह दिलेर आदमी था और सतपुडा की पहाडि यों से भलीभांति परिचित था। आदिवासियों का उसे पूरा समर्थन प्राप्त था। उसने अंग्रेजों को कडी टक्कर दी। तात्या टोपे ने भी उसमें सहयोग दिया। महीनों तक संघर्ष चला। लेकिन धोखे से उसे पकड लिया गया और बाद में जबलपुर जेल में उसे फांसी दे दी गई।

वयोवृद्ध मोतीलाल जी आज भी देश-दुनिया से बेखबर नहीं हैं। वे समाचार पत्र पढ़ते हैं, किताबें पढ ते हैं, देश-दुनिया की खबर लेते हैं। देश की गरीबी और भुखमरी से व्यथित है, परेशान हैं। लेकिन हमारे आज के गद्‌दी पर बैठने वाले लोग इससे बेखबर हैं। मोतीलाल जी से मिलकर सदा श्रद्धा व सम्मान से मन भर जाता है। पचमढी से लौटते समय मैं सोच रहा था राजनीति में अब ऐसे लोग क्यों नहीं आते?
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