हाल ही में मेरी मुलाकात प्रेम मनमौजी से हुई, जो उज्जैन से पिपरिया में एक बाल मेले में आए थे। उनसे पहले भी मिल चुका हूं, पर इस बार अरसे बाद मिला तो बहुत प्रसन्नता हुई। और यह तब और बढ़ गई जब उनकी कलाकृतियों से रू-ब-रू हुआ। उन्होंने पेड़ की सूखी पत्तियों से चिड़िया, चूहा, बिल्ली, शेर, घोड़ा, हाथी गाय आदि आकृतियां बनाई हुई थी। कागज को काटकर खरगोश, शेर, गाय, भैंस और मनुष्य के मुखौटे बनाए हुए थे जिनमें रंगीन पेसिल से रंग भरे हुए थे, जो बहुत सुंदर लग रहे थे। मैं देर तक निहारता रहा। उनकी कलाकृतियों को देखकर मुझे कला गुरू विष्णु चिंचालकर की याद आ गई जिन्हें प्रेम भी अपना गुरू मानते हैं।
गुरूजी प्रकृति को अपना गुरू मानते थे। वे कहते थे प्रकृति ही कलाकार का सबसे बड़ा शिक्षक है। उसमें ढेरों आकृतियां और सौंदर्य छुपा है, जिसे कलाकार को पहचानकर उसके अनुरूप ही चित्रों को आकार देना है। यही काम बखूबी प्रेम मनमौजी कर रहे हैं।
प्रेम बचपन से मूर्तियां बनाने के शौकीन थे। उन्हें अपनी कला को निखारने और आगे बढ़ाने का मौका एकलव्य संस्था में आकर मिला। यह संस्था शिक्षा के क्षेत्र में पिछले 30 वर्षो से कार्यरत है। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम एकलव्य की ही देन थी, जिसकी सराहना देश-विदेश में काफी हुई।
उन्होंने साफ-सफाई के काम से संस्था में शुरूआत की। लेकिन जल्द ही उनकी प्रतिभा को संस्था को पहचान मिली और उनकी रूचि व लगन के अनुसारं वे कला और शैक्षणिक गतिविधियों से जुड़ गए। बाद में भी संस्था ने उन्हें काफी मौके उपलब्ध कराए। असल में एकलव्य का काम ही अलग-अलग तरह की प्रतिभाओं को सामने लाना और आगे बढ़ाना है। बच्चों की पत्रिका चकमक ने कई लेखक और चित्रकार तैयार किए हैं।
प्रेम के अंदर का सुप्त कलाकार तब अच्छी तरह जागा और सक्रिय हुआ, जब वे वर्ष 1985 में गुरूजी (विष्णु चिंचालकर) से मिले। देवास के पास हाटपीपल्या में एकलव्य के कार्यक्रम में गुरूजी आए हुए थे। वहां गुरूजी ने बहुत ही मामूली चीजों से बहुत ही आकर्षक और सुंदर कलाकृतियां बनाई।
मुझे खुद गुरूजी ने इंदौर के संवाद नगर स्थित घर में ऐसी ढेर चीजें दिखाई थीं। सुपारी से गणेशजी, आम की गुठली से टैगोर और टूटी चप्पल की मोनालिसा की याद अब भी है। हिन्दी और अंग्रेजी के अक्षरों से विभिन्न तरह की आकृतियां बनाई थी। गुरूजी अक्षरों से खेलते थे और उनसे विभिन्न तरह के चित्र बनाते रहते थे। उनकी इस परिकल्पना के आधार पर कई और लोगों ने ऐसे प्रयोग किए हैं।
गुरूजी की इसी विधा को प्रेम मनमौजी ने अपनाया। बहुत ही कम संसाधनों में कला को बेहतर रूप दिया। उनका कहना है कि अगर हम केवल पत्तियों से आकृतियां बनाने की बात करें तो पेड़ों से गिरी हुई पुरानी पत्तियों को एकत्र करें। पेड़ों से ताजी पत्तियां न तोडे। पुरानी पत्तियों में कुछ अलग-अलग रंग भी मिल जाते हैं, जो कि ताजी पत्तियों में नहीं मिलते।
प्रेम कहते हैं कि सबसे पहले पत्तियों को गौर से देखें-उनमें कौन सी आकृति छुपी है। उसकी कल्पना करें और फिर उसे उसके अनुरूप उसे आकार दें। चित्र की कल्पना हरेक बच्चे की अलग-अलग हो सकती है। इनसे उल्लू, मेंढ़क, गौरेया, चूहा, बिल्ली कुछ भी बनाया जा सकता है।
प्रेम मनमौजी की पत्तियों के रचना संसार पर एक किताब भी आ चुकी है। इस किताब का विमोचन वर्ष 1997 मे खुद गुरूजी ने किया था। कई जगह कला प्रदर्शनी लग चुकी हैं। उन्हें अखिल भारतीय कालिदास कला प्रदर्शनी सम्मान मिल चुका है। उनकी कला पर देश-प्रदेश की पत्र-पत्रिकाओं में छप चुका है।
वे न केवल पत्तियों से आकृतियां बनाते हैं बल्कि काष्ठ और मिट्टी से भी बनाते हैं। इसके अलावा जादू दिखाते हैं। कागज की कई आकृतियां बनाते हैं। चूंकि वे उज्जैन में रहते हैं। उज्जैन की कला और संस्कृति के क्षेत्र में समृद्ध परंपरा रही है। इसका निशिचत ही उनकी कला पर प्रभाव दिखता है। इस ओर बच्चे भी प्रयास करें तो उन्हें भी मजा आएगा और अगर चित्रों के बारे में लिखें तो भाषा और लेखन क्षमता भी बढ़ेगी। स्कूल के बाहर ऐसी गतिविधियों से शिक्षण बहुत ही उपयोगी होगा।
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