
जिस घर में हम रूके थे, वह कच्चा था लेकिन सीमेंट व कांक्रीट के पक्के घरों से अपेक्षाकृत ठंडा था। वहां हर चीज सुघड़ता से रखी हुई थी। गोबर व काली मिट्टी से लिपा-पुता यह घर अपना सौंदर्य बिखेर रहा था। ऊंची दीवारों वाले खपरैल से ढके इस हवादार घर के आगे-पीछे काफी खुली जगह थी। बच्चों के खेलने-कूदने और उठने-बैठने के हिसाब से पर्याप्त जगह थी, ऐसी सुविधा शहरी घरों में नहीं मिलती। अंग्रेजी के यू आकार के बने इस घर के पीछे बाड़ी थी। यहां के लगभग हर घर में बाड़ी है, जहां से हरी सब्जियां लगाई जाती हैं।
सब्जियों में पानी देने के लिए कुआं होता है, जिसमें बांस की लकड़ी के एक सिरे पर बाल्टी बंधी रहती है और दूसरे सिरे पर पत्थर। बिल्कुल रेलवे गेट की तरह। इस लकड़ी के एक सिरे को पकड़कर ऊपर-नीचे करने से पानी खींचा जा सकता है। इसे स्थानीय भाषा में टेढा कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में इसी टेढ़ा पद्धति से सिंचाई की जाती है। यहां बाड़ियों में लगे हरे-भरे कटहल के पेड़ों को फलों से लदा देखकर कोई भी मोहित हो सकता है। इस गांव में आम का बगीचा था, जहां बच्चों की टोलियां मंडराती रहती थी, गुलेल से निशाना साधकर, आम गिराना, इनके बाएं हाथ का खेल है।
इसके अलावा, चार ( चिरौंजी ) के जंगल में जाकर पेड़ों से पके चार को खाने का एक अलग ही मजा है। बरगद के फल, इमली, आंवला, इमली की पत्ती तोड़-तोड़कर बच्चे खाते रहते हैं। दस-बारह साल की अरसन हमारे साथ जंगल गई और बिना रूके चार के पेड़ पर सहज ही चढ़ गई। अरमिता जो हमें जंगल दिखाने ले गई थी, वह खुद बहुत पतली शाखाओं वाले पेड़ पर चढ़ी और जामुन जैसे पके चार गिराए, जिसे हमने बड़े मजे से खाया।
गांव के छोटे बच्चे जंगल के पेड़ों के नाम, जंगली जानवरों व फल-फूलों के नाम और पहाड़ों के बारे में ढेरों बाते जानते हैं, जिसे सुनकर सुखद आशचर्य होता है। ऐसी याददाशत शायद ही हमारे शहरी पढ़ाकू अंग्रेजदा बच्चों की हो। इसी प्रकार यहां के बुजुर्गों से बात कर जंगलों में मौजूद सैकड़ों जड़ी-बूटियों के बारे में जाना जा सकता है। भूख के दिनों में काम आने-वाले कंद-मूल, फल-फूलों के बारे में वे सहज ही बता देते हैं, जो यहां के जंगल और पहाड़ में मौजूद हैं।
यहां उरांव आदिवासी हैं, इनमें से ज्यादातर बहुत पहले ईसाई बन गए थे। मजबूत काले और गठीले देह के इन लोगों का जीवन बड़ा कठिन लगता है। महिलाएं पुरुषों से अधिक काम करती हैं। लेकिन महिलाओं पर उतनी पाबंदी नहीं है, जितनी अन्य जगहों में होती है। यहां की लड़कियां साइकिल चलाती है, जो उनकी आजादी की प्रतीक बन गई है। वे साइकिल पर सवार होकर स्कूल जाती हैं। चर्च जाती हैं और हाट-बाजार जाती हैं। वे गांव से दूसरे गांव अकेले ही साइकिल से जा सकती हैं, उन्हें किसी पुरुष की मदद की जरूरत नहीं। इस गांव में तो बिजली है लेकिन पड़ोसी गांव कोनकेल आज तक बिजली नहीं है। वे अब भी चिमनी युग में जी रहे हैं।
यहां का जीवन कठिन व सुविधाविहीन है। अलसुबह 4 बजे लोग जाते हैं। हमारी तरह 8 बजे तक सोना इनकी आदत में नहीं। सबसे पहले मुंह हाथ धोकर उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती है। महिलाएं साफ-सफाई का काम करती हैं। पानी भरती हैं, यह टेढा काम है। हैंडपंप नजदीक नहीं होने के कारण दूर-दूर से सिर पर पानी भरे बर्तन ढोना पड़ता है। झाडू लगाना भी बड़ी मशक्कत का काम है। यहां शहरों की तरह एक-दो चिकने कमरों की सफाई नहीं करनी पड़ती बल्कि अपने घरों की सफाई के साथ ढोरों व सुअरों को बांधने की लंबी-चौड़ी जगह को साफ करना पड़ता है। वहां के कचरे को उठाकर बाहर फेंकना

यहां दूर-दूर मकानों में रहने वाले लोगों में एक-दूसरे के साथ बहुत नजदीक रिशता है। सामूहिकता है, आपसी भाईचारा, आत्मीय रिशता और पारंपरिक मेल-जोल है। उन्हें उनकी संस्कृति आपस में सब को जोड़े हुए हैं। जोड़ने वाली संस्कृति के कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। कोनकेल की अंजिता, रजनी, इस्दौर रेमा, असमिता, विनीता आदि कई स्कूली लड़के-लड़कियां अपने गांव के बुजुर्ग सुलेमान एक्का नामक किसान के खेत में गोबर खाद डालने का काम कर रहे हैं। यह गर्मी की छुटि्टयों की बात है। हालांकि उन्हें बदले में कुछ पैसा भी मिलेगा लेकिन इससे भी अधिक अपने गांव के बुजुर्ग किसान की मदद है। ऐसे गांवों को देखकर खु्शी से दिल उछल जाता है।
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