
स्कूल में पढ़ने वाली छोटी लड़की की तरह बालों की बनी सुंदर चोटियां लटक रही हैं, यह दरअसल लड़की नहीं, खेत में लहलहाती मडि़या की फसल है। लेकिन सिर्फ इसका प्राकृतिक सौंदर्य ही नहीं, यह पौषि्टकता से भरपूर है जिससे कुपोषण दूर किया जा सकता है।
यह परंपरागत खेती में नया प्रयोग छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के एक छोटे कस्बे गनियारी में किया जा रहा है। जन स्वास्थ्य सहयोग, जो मुख्य रूप से स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय है, अपने खेती कार्यक्रम में देशी बीजों के संरक्षण व संवर्धन के काम में संलग्न है। यहां देशी धान की डेढ़ सौ किस्में, देशी गेहूं की छह, मुंगलानी (राजगिर) की दो, ज्वार की दो और मडि़या की छह किस्में उपलब्ध हैं।
परंपरागत खेती में मडि़या की खेती जंगल व पहाड़ वाले क्षेत्र में होती है। छत्तीसगढ़ में बस्तर और मध्यप्रदेश के मंडला-डिण्डौरी में आदिवासी मडि़या की खेती को बेंवर खेती के माध्यम से करते आ रहे हैं।
मडि़या सरसों की तरह छोटा अनाज होता है। इसे रागी, नाचनी और मड़ुआ नाम से भी जाना जाता है। इसे हाथ की चक्की में दर कर खिचड़ी या भात बनाया जा सकता है। इसके आटे की रोटी भी बनार्इ जा सकती हैं। खुरमी या लडडू भी बना सकते हैं। इसमें चूना (कैलिशयम) भरपूर मात्रा में होता है और कुछ मात्रा में लौह तत्व भी पाए जाते हैं।
जन स्वास्थ्य सहयोग के परिसर में देशी बीजों के संरक्षण व जैविक खेती का यह प्रयोग करीब एक दषक से पहले से शुरू हुआ है। सबसे पहले धान में श्री पद्धति का प्रयोग हुआ है जिसमें औसत उत्पादन से दोगुना उत्पादन हासिल किया गया। इसके बाद गेहूं की इस पद्धति से खेती की गर्इ। और अब मडि़या मे इस पद्धति का इस्तेमाल किया जा रहा है।
धान में श्री पद्धति (मेडागास्कर पद्धति) मशहूर है और अब तक काफी देशों में फैल चुकी है। गेहूं में भी इसका प्रयोग हुआ है लेकिन मडि़या में शायद यह प्रयोग पहली बार हुआ है। कर्नाटक में किसानों द्वारा गुलीरागी पद्धति प्रचलन में है, जो श्री पद्धति से मिलती-जुलती है।
श्री पद्धति में मडि़या की खेती इसलिए भी जरूरी है कि कमजोर जमीन में और कम पानी में, कम खाद में यह संभव है। कमजोर जमीन में अधिक पैदावार संभव है। और यहां हुए प्रयोग में प्रति एकड़ 10 से 13 किवंटल उत्पादन हुआ है।
देशी बीजों के संरक्षण में जुटे ओम प्रकाश का कहना है कि मडि़या भाटा व कमजोर जमीन में भी होती है। इसके लिए कम पानी की जरूरत होती है। यानी अगर खेत में ज्यादा पानी रूकता है तो पानी की निकासी होनी चाहिए। उन्होंने खुद अपनी भाटा जमीन में इसका प्रयोग किया है। वे हर साल हरी खाद डालकर अपनी जमीन को उत्तरोत्तर उर्वर बना रहे हैं।
सबसे पहले थरहा या नर्सरी तैयार करनी चाहिए। इसके लिए खेत में गोबर खाद डालकर दो बार जुतार्इ करनी चाहिए। उसके बाद बीज डालकर हल्की मिटटी और पैरा से ढक देना चाहिए जिससे चिडि़या वगैरह से बीज बच सकें। एक एकड़ खेत के लिए 3-4 सौ ग्राम बीज पर्याप्त हैं।
ओमप्रकाश का कहना है कि जिस खेत में मडि़या लगाना है उसमें 6 से 8 बैलगाड़ी पकी गोबर की खाद डालकर उसकी दो बार जुतार्इ करनी चाहिए। इसके बाद 10-10 इंच की दूरी के निशान वाली दतारी को खड़ी और आड़ी चलाकर उसके मिलन बिंदु पर मडि़या के पौधे की रोपार्इ करनी चाहिए। पौधे के बाजू में कम्पोस्ट खाद या केंचुआ खाद को भी डाला जा सकता है।
इसके बाद 20-25 दिन में पहली गुड़ार्इ करनी चाहिए और हल्के हाथ से पौधे को सुला देना चाहिए। इससे कंसा ज्यादा निकलते हैं और बालियां ज्यादा आती हैं। यही गुड़ार्इ की प्रकि्रया 10-12 दिन बाद फिर दोहरार्इ जानी चाहिए। साइकिल व्हील या कुदाली से गुड़ार्इ की जा सकती है।
इस पूरे प्रयोग में बाहरी निवेश करने की जरूरत नहीं है। अमृत पानी का छिड़काव अगर तीन बार किया जाए तो फसल की बढ़वार अच्छी होगी और पैदावार भी अच्छी होगी। अमृत पानी को जीवामृत भी कहा जाता है।
ओमप्रकाश बताते हैं इसे खेत में या घर में ही तैयार किया जा सकता है। गोबर,गोमूत्र, गुड़, बेसन और पानी मिलाकर इसे बनाया जाता है और फिर खेत में इसका छिड़काव किया जाता है। अमृत पानी से पौधे व जड़ों को पोषण मिलता है।
जैविक खेती के प्रयोग से बरसों से जुड़े जेकब नेल्लीथानम का कहना है कि हमारे देश में और खासतौर से छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में कुपोषण बहुत है। अगर मडि़या की खेती को प्रोत्साहित किया जाए और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में मडि़या को भी षामिल किया जाए तो कुपोषण कम हो सकता है। आजकल इसके बिसि्कट बाजार में उपलब्ध है, जिनकी काफी मांग है।
वे बताते हैं कि प्रयोग से यह साबित होता है कि प्रति हैक्टेयर 50 किवंटल तक उत्पादन संभव है जो सरकारी आंकड़ों के हिसाब से दोगुना है। मडि़या की खेती कुपोषण को दूर करने के लिए भी उपयोगी होगी। इसकी मार्केटिंग भी की जा सकती है। अगर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भी इसे शामिल कर लिया जाए तो कुपोषण से निजात मिल सकेगी।
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