आजादी के ठीक बाद के वर्ष
प्रायमरी स्कूल के दिन थे हमारे
स्कूल के मैदान से दिखते थे
सतपुड़ा के घने जंगल
प्रार्थना में जन-मन-गण गाते हुए
हमारी आंखें
सतपुड़ा के घने जंगल पर टिक जाती थीं
जंगल में
हमें दीखते बाबा बागदेव
कभी किसी ने
बाघ नहीं कहा उन्हें
न ही कहा शेर
बाबा के बारे में
बोलते लोगों की आंखें
चमकने लगतीं
सांस भर आती
मानो अभी देखकर
दौड़ आए हों
कभी अपनी नाभि
कभी उसके भी ऊपर
हाथ रखकर कहते
इतने ऊंचे होंगे
दोनों बाजू फैलाकर बताते
कि हाथ छोटे पड़ जाते
बगल झुक लहराते हाथ
कहते इतने लम्बे
इससे भी
भय! उन्हें देख भय कहां!
बल्कि भय ही जाता रहता
सतपुड़ा पर्वत और
उसके मैदान के संधिस्थल पर
रेल का पुल जोड़ता है
दो पर्वत शिखाओं को
इस पुल के नीचे से ही
सतपुड़ा पर्वत पर
चढ़ती उतरती है सड़क
यहीं सड़क के ऊपर से
गुजरती है रेलगाड़ी बाबा बागदेव के पुल से
रेलगाड़ी के पुल को
कभी किसी ने नहीं कहा रेल का पुल
बाबादेव के पुल के नीचे से
पर्वत से लिपटी हुर्इ
पर्वत के दुख में दुखी
सड़क से सहमी
बहती है बागदेव नदी
सतपुड़ा की बेटी
कभी बारहों माह
अठखेलियां करती थी
अब रोककर रखती है
यहां वहां थोड़ा सा-पानी
सूने भीगें कोटर
सतपुड़ा की डबडबाती आंखें न जाने
किसका इंतजार कर रही हैं
सतपुड़ा का जंगल
आज भी कहलाता है
बागदेव का जंगल
बाबा का वैभव
सतपुड़ा को और घना गहरा
बना देता है
बाबा बागदेव
सतपुड़ा के पहाड़ों से उतरकर
नदी किनारे खड़े
देखते सड़क का बहाव
बाबा को देख
थम जाती सड़क की धड़कन
गाड़ीवान, ड्राइवर और चरवाहे
करते इंतजार
बाबा रास्ता दे
तो आगे बढ़ें
बाबा ने भूख भरी दृष्टि से
सड़क को कभी नहीं देखा
उनके जंगल के कानून में
कभी किसी ने
भूख से अधिक नहीं चाहा
बाबा बागदेव
देखते और सुनते
सड़क का बदलता बहाव
बैलों के गले में लटकी
लकड़ी की घंटियों की गूंज
बैलगाडि़यों के पहियों के नीचे
कंकरों की चरमराती
किरकिराती आवाज
चकीलों की चूं-चूं
जंगल की महाध्वनियां गूंजती
जगत की स्तुति में
एक और ध्वनि
बहुत दूर से
बहुत दूर तक
सब ध्वनियों से
भिन्न गूंजती
सारी ध्वनियों को कुचलती
अपने मशीनी स्वर से
गों गों गों
ओं ओं ओं
मीठे पानी के लिए
यात्रा का पड़ाव
यहीं होता
मनुष्य, पशु और मशीन
यहीं ताजा तर होते
मोटरों का हार्सपावर
इतना नहीं बढ़ा था
कि एक ही सांस में
लांघ पातीं बागदेव का जंगल
बैलों के समान
मोटरों के मुंह से भी
फेन छूटता रहता
वास्कोडिगामा और कोलंबस के
समुद्री नक्शे को आगे बढ़ाते
आए थे अंग्रेज और हमारे
पहाड़ी मार्ग सुगम कर गए
बाकी सारे काम हमने पूरे कर लिए
आजादी की स्वर्ण जयंती तक
जंगल वृक्षहीन हो गए
और अब नर्इ विश्व व्यवस्था में
प्राणीहीन होने जा रहे हैं...
जंगलों की लूट से
पहले बंदूकें खरीदी जाती थीं
अब स्थापित की जाती हैं
धन-धर्म और राजनीति की सत्ता
सत्ता ही शिकारियों का असली मचान
मचान से बिजलियां गिर रही हैं
जंगलों में सुनसान झोपड़ों पर
लुटेरों को
सामाजिक प्रतिष्ठा की भूख
सबसे अधिक सताती है
वे ऊंचे से ऊंचे मचान तक
पहुंचने की जल्दी में हैं
बागदेव का पुल
तराजू का कांटा है
दक्षिण में
सतपुड़ा खड़ा है
अपने आदिवासियों के साथ
उत्तर में
सारे प्रश्न खड़े हैं
इटारसी, होशंगाबाद, भोपाल
और दूर दिल्ली तक
आज भी सतपुड़ा के जंगलों में
गूंज रही है बाबा बागदेव की दहाड़
चमक रही है
बाबा बागदेव की आंखें
बोली में, भाषा में, शब्दों में
आकार ले रहे हैं बाबा बागदेव
घास यों क्यों लहरा रही है?
-कश्मीर उप्पल
प्रायमरी स्कूल के दिन थे हमारे
स्कूल के मैदान से दिखते थे
सतपुड़ा के घने जंगल
प्रार्थना में जन-मन-गण गाते हुए
हमारी आंखें
सतपुड़ा के घने जंगल पर टिक जाती थीं
जंगल में
हमें दीखते बाबा बागदेव
कभी किसी ने
बाघ नहीं कहा उन्हें
न ही कहा शेर
बाबा के बारे में
बोलते लोगों की आंखें
चमकने लगतीं
सांस भर आती
मानो अभी देखकर
दौड़ आए हों
कभी अपनी नाभि
कभी उसके भी ऊपर
हाथ रखकर कहते
इतने ऊंचे होंगे
दोनों बाजू फैलाकर बताते
कि हाथ छोटे पड़ जाते
बगल झुक लहराते हाथ
कहते इतने लम्बे
इससे भी
भय! उन्हें देख भय कहां!
बल्कि भय ही जाता रहता
सतपुड़ा पर्वत और
उसके मैदान के संधिस्थल पर
रेल का पुल जोड़ता है
दो पर्वत शिखाओं को
इस पुल के नीचे से ही
सतपुड़ा पर्वत पर
चढ़ती उतरती है सड़क
यहीं सड़क के ऊपर से
गुजरती है रेलगाड़ी बाबा बागदेव के पुल से
रेलगाड़ी के पुल को
कभी किसी ने नहीं कहा रेल का पुल
बाबादेव के पुल के नीचे से
पर्वत से लिपटी हुर्इ
पर्वत के दुख में दुखी
सड़क से सहमी
बहती है बागदेव नदी
सतपुड़ा की बेटी
कभी बारहों माह
अठखेलियां करती थी
अब रोककर रखती है
यहां वहां थोड़ा सा-पानी
सूने भीगें कोटर
सतपुड़ा की डबडबाती आंखें न जाने
किसका इंतजार कर रही हैं

आज भी कहलाता है
बागदेव का जंगल
बाबा का वैभव
सतपुड़ा को और घना गहरा
बना देता है
बाबा बागदेव
सतपुड़ा के पहाड़ों से उतरकर
नदी किनारे खड़े
देखते सड़क का बहाव
बाबा को देख
थम जाती सड़क की धड़कन
गाड़ीवान, ड्राइवर और चरवाहे
करते इंतजार
बाबा रास्ता दे
तो आगे बढ़ें
बाबा ने भूख भरी दृष्टि से
सड़क को कभी नहीं देखा
उनके जंगल के कानून में
कभी किसी ने
भूख से अधिक नहीं चाहा
बाबा बागदेव
देखते और सुनते
सड़क का बदलता बहाव
बैलों के गले में लटकी
लकड़ी की घंटियों की गूंज
बैलगाडि़यों के पहियों के नीचे
कंकरों की चरमराती
किरकिराती आवाज
चकीलों की चूं-चूं
जंगल की महाध्वनियां गूंजती
जगत की स्तुति में
एक और ध्वनि
बहुत दूर से
बहुत दूर तक
सब ध्वनियों से
भिन्न गूंजती
सारी ध्वनियों को कुचलती
अपने मशीनी स्वर से
गों गों गों
ओं ओं ओं
मीठे पानी के लिए
यात्रा का पड़ाव
यहीं होता
मनुष्य, पशु और मशीन
यहीं ताजा तर होते
मोटरों का हार्सपावर
इतना नहीं बढ़ा था
कि एक ही सांस में
लांघ पातीं बागदेव का जंगल
बैलों के समान
मोटरों के मुंह से भी
फेन छूटता रहता
वास्कोडिगामा और कोलंबस के
समुद्री नक्शे को आगे बढ़ाते
आए थे अंग्रेज और हमारे
पहाड़ी मार्ग सुगम कर गए
बाकी सारे काम हमने पूरे कर लिए
आजादी की स्वर्ण जयंती तक
जंगल वृक्षहीन हो गए
और अब नर्इ विश्व व्यवस्था में
प्राणीहीन होने जा रहे हैं...
जंगलों की लूट से
पहले बंदूकें खरीदी जाती थीं
अब स्थापित की जाती हैं
धन-धर्म और राजनीति की सत्ता
सत्ता ही शिकारियों का असली मचान
मचान से बिजलियां गिर रही हैं
जंगलों में सुनसान झोपड़ों पर
लुटेरों को
सामाजिक प्रतिष्ठा की भूख
सबसे अधिक सताती है
वे ऊंचे से ऊंचे मचान तक
पहुंचने की जल्दी में हैं
बागदेव का पुल
तराजू का कांटा है
दक्षिण में
सतपुड़ा खड़ा है
अपने आदिवासियों के साथ
उत्तर में
सारे प्रश्न खड़े हैं
इटारसी, होशंगाबाद, भोपाल
और दूर दिल्ली तक
आज भी सतपुड़ा के जंगलों में
गूंज रही है बाबा बागदेव की दहाड़
चमक रही है
बाबा बागदेव की आंखें
बोली में, भाषा में, शब्दों में
आकार ले रहे हैं बाबा बागदेव
घास यों क्यों लहरा रही है?
-कश्मीर उप्पल
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बाबा ने भूख भरी दृष्टि से
सड़क को कभी नहीं देखा
उनके जंगल के कानून में
कभी किसी ने
भूख से अधिक नहीं चाहा
सतपुड़ा आप जैसे लोगों से हमेशा आबाद रहे ! शुभकामनाएं उप्पल जी.
अचानक ही आज एक बहुत अच्छी साइट SATPURAHILLS देखने को मिली...आपको साधुवाद
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