श्रम से सृजन का आनंद

Thursday, July 11, 20130 comments

बहुत तेज गति से पहिया घूम रहा है। यह किसी मशीन से नहीं चल रहा है, बल्कि इसे एक डंडी से संतोष चला रहे हैं। एक हाथ से वे पहिया चलाते हैं और जब वह घूमता रहता है तब उस पर रखे मिटटी के लोंदे को आकार देते हैं। जैसा चाहो वैसा बना लो। उंगलियों और तर्जनी के सहारे नया सृजन हो रहा है। हाथ की मेहनत का यह कमाल बहुत ही मनमोहक है। घंटो देखते रहो। मन नहीं भरता। 

पिपरिया से पचमढ़ी की ओर जाने वाली सड़क पर छोटेलाल दादा का घर है। वे कुम्हार जाति से हैं। संतोष उनका बेटा है। वे अपने बेटे और परिवार के पांच और सदस्यों के साथ मिलकर मिटटी के बर्तन बनाने का काम काम करते हैं। यह काम वे पीढि़यों से कर रहे हैं। यानी उन्होंने यह काम अपने मां-बाप से सीखा है।

अब गर्मी आ गर्इ है। छोटेलाल दादा काफी व्यस्त हैं। क्योंकि गर्मी में हम सबकों ठंडा पानी चाहिए। मटके और सुराहियों का पानी सबसे ठंडा रहता है। वे सुराही तो नहीं बनाते, लेकिन मटके बनाते हैं। इसके लिए उन्हें खेतों या खदानों से मिटटी लाना पड़ता है। सबसे पहले बड़े-बड़े ढेलों को फोड़ते हैं। अनाज की तरह नुकाते हैं।  यानी साफ करते है। पानी में गलाते हैं। उसमें लकड़ी का बुरादा मिलाते हैं। तब जाकर चाक (पहिया) पर चढ़ाते हैं। और फिर चक्के को घुमाकर उसे अलग-अलग आकार दिया जाता है।

चाक से उतार कर उसे हल्की धूप में रखते हैं। और फिर उसे बल्लेनुमा लकड़ी से हल्की थाप देकर टाइट किया जाता है। फिर छाया में सुखाया जाता है। दो-तीन बाद जब मटका सूख जाता है तो उसे गेरू और झीप से रंग दिया जाता है। इसके बाद भटटे में पकने के लिए रख देते हैं। एक दिन बाद मटके पक कर तैयार हो जाते हैं। इस पूरी प्रकिया में लगभग एक सप्ताह लग जाता है।

चाहे ठंडे पानी के लिए मटके चाहिए हों, या शादी-विवाह में मंडप में बेर्इ लगाना हो। चाहे कलश की जरूरत हो या पोला त्योहार में मिटटी के बैल की। सबकी पूर्ति छोटेलाल दादा करते आ रहे हैं। बदले में उन्हें अनाज या नगद पैसे भी मिलते हैं।

लेकिन अब थोड़ी बिक्री कम होती है। क्योंकि शादियों में रेडिमेड टेंट लगते हैं। जिसमें मटकों की जरूरत नहीं होती। प्लास्टिक के डिब्बों के कारण भी मटकों की मांग कम हुर्इ है। जबकि मटके का पानी ठंडा रहता है क्योंकि उसमें छोटे-छोटे छिद्र होते हैं उसमे से पानी रिसता रहता है। हवा का भी प्रवेश होता रहता है जिससे पानी ठंडा रहता है।

छोटेलाल दादा बताते हैं कि पहले कर्इ तरह के मिटटी के बर्तनों की घरों में जरूरत होती थी। जैसे-रोटी बनाने के लिए कल्ले,  दही मथने के लिए मड़ानी,  भात पकाने के लिए हंडी, सब्जी बनाने के लिए झबला और दूध रखने के लिए डुबला-डुबलिया। लेकिन लोहे, स्टील और अल्युमीनियम के बर्तन आने से इनकी मांग कम हुर्इ है। बल्कि रसोर्इ से यह बर्तन बाहर ही हो गए हैं।

जब छोटेलाल दादा हंडी में चावल पकाने की बात कर रहे थे तब मुझे अपने बचपन के दिन याद आ रहे थे। मां हंडी में खाना बनाती थी। जब ज्यादा भूख लगती थी तब हम बार-बार चूल्हे के पास जाते थे। हंडी में चावल पकते देखकर और उसकी खदबद-खदबद आवाज सुनकर मुंह में पानी आ जाता था। और आंखों में चमक आ जाती थी।

छोटेलाल का पैतृक गांव नर्मदा पल्लेपार नांदेर में है, जो सीहोर जिले में है। लेकिन वे पिछले 25 बरस से पिपरिया में ही रह रहे हैं। वे बताते हैं पहले  हमें मिटटी बर्तनों के बदले अनाज मिलता था। सतगजरा अनाज (यानी सात प्रकार का अनाज) मिलता था क्योंकि कोर्इ एक फसल ज्यादा नहीं होती थी, सभी तरह की मिश्रित फसलें होती थी। तिवड़ा, ज्वार, चना, तुअर, कोदो, कुटकी, गेहूं और धान इत्यादि।

पिपरिया से लगे दो गांवों बनवारी और खापा में वे मिटटी के बर्तन देते हैं। उन्हें इसके बदले में अनाज दिया जाता है। अब अधिकांष घरों से गेहूं ही मिलता है क्योंकि इसकी खेती सब किसान करते हैं। छोटेलाल दादा बताते हैं कि गांव में अब भी उनके साथ पहले जैसा आत्मीय व्यवहार होता है। महिलाओं से ज्यादा लेन-देन होता है। शादी-विवाह में निमंत्रण दिया जाता है। हालांकि कुछ शहरी लोगों से रूखे व्यवहार की घटनाएं भी हुर्इ हैं। लेकिन इसे वे तरजीह नहीं देते। वे हंसकर कहते हैं। यह जमाना नया है। इसमें पहले जैसी बात नहीं।

अब उनके परिवार के इससे गुजर-बसर नहीं हो पा रही है। उनके परिवार के भोजन की मुख्य जरूरतें तो कुछ हद गांव से मिले अनाज से पूरी हो जाती हैं। लेकिन फिर भी चावल, दाल, तेल, निरमा और अन्य खर्चों के लिए पैसे चाहिए।

एक मोटे हिसाब के अनुसार 6 कि. ग्रा. दाल- 360 रू. (1 किग्रा- 60रू प्रति किग्रा ) , चावल 30 कि. ग्रा.- 25 रू.-750 रू. (1 किग्रा-25 रू के हिसाब से ), शक्कर 5किग्रा- 150रू. (1 किग्रा-30रू के हिसाब से,) मूंगफली का तेल 5 किग्रा- 350 किग्रा, (1 किग्रा-70रू,) कपड़े धोने का पावडर- एक माह के लिए 100 रू। यानी कुल मिलाकर, 1,710 रू. का खर्च है। जिसे अपने परंपरागत काम से निकाल पाना मुश्किल है। इसमें कपड़े और इलाज वगैरह का आकस्मिक खर्च नहीं जोड़ा गया है।

मौजूदा समय में उन्हें अपने काम में भी कुछ मुश्किलें आ रही हैं। एक तो मिटटी सहज रूप से उपलब्ध नहीं होती। और दूसरी बात भटटे के लिए लकडि़यां भी नहीं मिलती। अगर ये दोनों मांगों पर ध्यान दिया जाए तो उन्हें इस काम को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। हालांकि उन्हें इस काम में आर्थिक कठिनाइयां आ रही हैं लेकिन यह काम करके बहुत ही मजा आता है। वे कहते हैं हाथ से मेहनत या श्रम करके जीवन जीने का आनंद ही कुछ और है।
(कुछ दिन पहले छोटेलाल दादा का निधन हो गया, यह लेख उनको समर्पित है।)
-बाबा मायाराम 
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