सतपुड़ा मेरी खिड़की पर

Tuesday, July 17, 20120 comments

पिछले एक साल से पिपरिया से इटारसी ट्रेन से आना-जाना हो रहा है। इस दौरान कर्इ लोगों से साक्षात्कार होता है। इनमें सब्जी वाले, दूध वाले, मूढगटठा (जलाऊ लकड़ी) व बकरियों के लिए पतितयां ले जाने वाली महिलाएं आदि शामिल होते हैं। इसके अलावा, निर्माण मजदूर, नौकरी पेशा वाले, कालेज के छात्र छात्राएं और स्कूली बच्चे होते हैं।

खिड़की से बाहर देखो तो और भी खूबसूरत नजारा दिखार्इ देता है। फिल्म की रील की तरह चलचित्र दौड़ते दिखार्इ पड़ते हैं। कभी सतपुड़ा की हरी-भरी पहाडि़यां दिखती हैं तो कभी खेतों में हिरण और चिंकारा कुलांचे भरते दिखते हैं। कभी रंग-बिरंगी साडि़यों में महिलाएं काम करते हुए दिखती हैं तो कभी खेतों में निंदार्इ-गुड़ार्इ लोग दिख जाते हैं। कभी छोटे-छोटे नदी नाले तो कभी दूर-दूर तक खेतों में लहलहाती फसलें।

सोहागपुर में पलकमती नदी के पुल से पान के बरेजे दिखते हैं। यहां के बंगला पान बहुत फेमस हैं। यह बहुत पुराना कस्बा है। यहां पुरानी तहसील हुआ करती थी। इसके बारे में एक कहावत है कि पढ़े न लिखे, सोहागपुर रहन लगे। यह कहावत इसलिए भी है कि यहां पर कचहरी में केस लड़े जाते थे। इसके लिए वकीलों की जरूरत होती थी। सोहागपुर में पुरानी तहसील हुआ करती थी।

यहां कुछ नौकरी पेशा वाले, कोर्ट-कचहरी के कारण पढ़े-लिखे लोग रहते होंगे। यहां की सुराहियां, मिटटी के बर्तन व दुर्गा की मूर्तियां प्रसिद्ध हैं। खुरचन नामक मिठार्इ भी खास है। यहां पहले कपड़ा रंगार्इ का उधोग भी हुआ करता था। साडियां प्रिंट होती थी। घरों में चरखे चलते थे। कपड़ा रंगार्इ अब सिर्फ यादों में है। अब तो पलकमती नदी भी कचरे से पट गर्इ है।

सोहागपुर से चले तो गुरमखेड़ी फिर बागरा तवा स्टेशन आता है। बागरा के कबेलू की प्रसिद्धि थी। इऩके पुराने कबेलू के भटटे हैं, जो भाते हैं। पर अब लेंटर वाली छतों की वजह से इनकी मांग कम है।

बागरा से सतपुड़ा की हरी-भरी पहाडि़यां मेरी खिड़की के नजदीक आ जाती हैं। जिसके लिए मैं हमेशा खिड़की की सीट पर ही बैठना पसंद करता हूं, जो कर्इ बार मिल जाती है। इन पहाडि़यों को देखकर इसी क्षेत्र के मशहूर कवि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता खुद ब खुद याद आ जाती है- सतपुड़ा के घने जंगल, ऊंघते अनमने जंगल।

आगे चले तो बोबदा यानी गुफा के अंदर से टे्रन गुजरती है। यह काफी लंबा है और इसमे घुप्प अंधेरा रहता है। बच्चे व युवा यहां जोर-जोर से कूका (आवाज) लगाते हैं। इसके बारे में मशहूर लेखक भारतेन्दु हरिशचंद्र ने अपने यात्रा वृत्तांत में जिक्र किया है। तवा पुल पर तवा नदी का मनोहारी दृश्य है,जो देखते ही बनता है। नीचे नाव चलती दिखार्इ देती हैं। जाल डाले मछुआरे बैठे रहते हैं। तवा बांध भी दिखार्इ देता है।

सोनतलार्इ से स्कूली लड़के-लड़कियां ट्रेन में सवार होते हैं, जो गुर्रा में उतर जाते हैं। वे ट्रेन से अप-डाउन करते हैं। बड़ी संख्या में कालेज जाने वाली लड़कियां जाती हैं। यहां से मूढगटठा वाली महिलाएं भी चढ़ती हैं। इन महिलाओं को पहले जंगल जाना पड़ता है, सूखी लकडि़यां बीनना-काटना पड़ता है। फिर वे इटारसी या सोहागपुर या पिपरिया बेचने लाती है। इनमें से कर्इ ऐसी हैं जो अपने घर के लिए भी लकडि़यां लाती हैं, क्योंकि शहरों में जलाऊ लकड़ी महंगी है।

सतपुड़ा के इस होशगाबाद जिला भौगोलिक दृष्टि से दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक है सतपुड़ा की जंगल पटटी व दूसरा है नर्मदा का कछार। रेल की पटरियां दोनों को विभक्त करती हैं। दक्षिण में सतपुड़ा की पहाडि़यां और उत्तर में नर्मदा का कछार। जंगल पटटी में मुख्य रूप से गोंड और कोरकू आदिवासी रहते हैं। और नर्मदा के कछार, जो काफी उपजाऊ माना जाता है, में अधिकांश गैर आदिवासी।

 कहा जा सकता है कि सफर में आनंद है, गंतव्य में नहीं। लेकिन गंतव्य पर  तो पहुंचना पड़ता है ही। पिपरिया स्टेशऩ पर उतरते ही दक्षिण में एक विशाल वृक्ष दिखता है, जिसमें लाखों की संख्या में परिन्दे का आशियाना है। वे उड़ते-उड़ते चहचहाते हुए उस पर कूदते-फांदते हैं। मैं सोचता हूं अगर ये पेड़ न रहे तो ये कहां जाएंगे?
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