
इसके विकल्प की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। पर यह तो पारंपरिक खेती में पहले से ही मौजूद है। उत्तराखंड के पहाड़ों में बारहनाजा की मिश्रित खेती इसी का एक उदाहरण मानी जा सकती है।
हाल ही में बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े विजय जड़धारी से मेरी मुलाकात हुर्इ। वे उत्तराखंड से भोपाल एक बैठक के सिलसिले में आए हुए थे। उन्हें परंपरागत कृषि ज्ञान के संरक्षण के लिए गत वर्ष 5 जून को इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से नवाजा गया है। वे पूर्व में चिपको आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं।
सत्तर के दशक में यहां पेड़ों के कटने से बचाने के लिए अनूठा आंदोलन चलाया गया था जिसमें ग्रामीणों ने पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने के लिए देश-दुनिया में मिसाल पेश की थी। इस आंदोलन में महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभार्इ थी। देशी बीज और पारंपरिक खेती में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
वर्ष 1987 से बीज बचाओ आंदोलन शुरू किया, जो अब फैल गया है। हिमालय में परंपरागत कृषि ज्ञान व बीज विविधता के संरक्षण का अनूठा काम किया गया है। बीज बचाओ आंदोलन के प्रभाव से पहाड़ी क्षेत्र में परंपरागत मिश्रित फसल पद्धति बारहनाजा लोकप्रिय पद्धति हो गर्इ, जिसे जड़धारी को पुरस्कृत कर सरकार ने भी मान्यता प्रदान कर दी है।
विजय जडधारी कहते हैं कि पुरानी पीढ़ी के लोग हमसे ताकतवर होते थे। वे ज्यादा वजन सकते थे और खेतों में खूब मेहनत करते थे। बीमार कम पड़ते थे। अगर छोटी-मोटी बीमारी हुर्इ तो वे अपना इलाज देसी अनाज व जड़ी-बूटियों से कर लेते थे। गांवों से सौ-दो सौ किलोमीटर की दूरी तक भी अस्पताल नहीं होते थे।
पहाड़ में मंडवा (रागी) और झंगोरा (सांवा ) ही मुख्य खाद्यान्न है। बारहनाजा यानी बारह तरह के अनाज। इसमें 12 अनाज हो यह जरूरी नहीं। अलग-अलग क्षेत्रों में 20 के लगभग प्रजातियां शामिल हैं। खरीफ की फसलों में एक फसलचक्र अपनाया जाता है। बारहनाजा परिवार में कोदा (मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुटटू), जोन्याला (ज्वार), मक्का, राजमा, गहथ (कुलथ), भटट( पारंपरिक सोयाबीन), रैंयास (नौरंगी), उड़द, सुंटा (लोबिया), रगड़वास, गुरूंष, तोर, मूंग, भगंजीर, तिल, जख्या, भांग, सण (सन), काखड़ी (खीरा) आदि शामिल हैं।
उत्तराखंड में 13 प्रतिशत जमीन सिंचित है और 87 प्रतिशत असिंचित। सिंचित खेती में विविधता नहीं है। जबकि असिंचित खेती में विविधता है। यह खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है और जैविक भी। इसमें किसी भी तरह के रासायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं होता है।
पहाड़ में किसान ऐसा फसलचक्र अपनाते हैं जिसमें सभी जीव-जगत के पालन का विचार है। इसमें न केवल मनुष्य की भोजन की जरूरतें पुूरी हो जाती हैं बलिक मवेशियों को भी चारा उपलब्ध हो जाता है। इसमें दलहन, तिलहन, अनाज , मसाले, रेशा और हरी सबिजयां और विविध तरह के फल-फूल आदि सब कुछ षामिल हैं। मनुष्यों को पौष्टिक अनाज, मवेशियों को फसलों के ठंडल या भूसे से चारा और धरती को भी जैव खाद से पोषक तत्व प्राप्त हो जाते हैं। इससे मिट्टी बचाने का भी जतन होता है।
बारहनाजा से एक और फायदा यह होता है कि अगर एक फसल मार खा जाती है तो उसकी पूर्ति दूसरी से हो जाती है। जबकि एकल फसलों में कुछ हाथ नहीं लगता।

बारहनाजा परिवार में तरह-तरह के रंग-रूप, स्वाद और पौष्टिकता से परिपूर्ण अनाज, दालें, मसाले और सब्जियां शामिल हैं। यह सिर्फ फसलें नहीं हैं, बल्कि एक पूरी कृषि संस्कृति है। स्वस्थ रहने के लिए मनुष्य को अलग-अलग पोषक तत्वों की जरूरत होती है, जो इस पद्धति में मौजूद हैं।
बारहनाजा में फसल कटार्इ के बाद खेत को पड़ती छोड दिया जाता है। यानी ये फसल व खेती के छुटटी के दिन होते हैं। छुटिटयां रबी सीजन की होती है,जो लगभग अक्टूबर से मार्च तक चलती हैं। पुराने समय में लोग इस जमीन में पशु चराया करते थे जिससे उन्हें गोबर खाद मिल जाया करती थी।
बारहनाजा की बुआर्इ बारिश के पूर्व हो जाती है। जड़धारी ने बताया इस बार मानसून देर से आया इसलिए बुआर्इ देर से हुर्इ। बुआर्इ से पूर्व खेत में एक बार हल चलाया जाता है। अधिकांश इलाकों में बीजों को मिश्रित करके छिटक कर बोया जाता है। और ऊपर से हल्का पाटा चला दिया जाता है ताकि बीज मिटटी में मिल जाए। हल्की बारिश से ही बीज अंकुरित हो जाते हैं। सूखे दिखने वाले हरे-भरे हो जाते हैं। और पौष्टिकता से भरपूर धन-धान्य प्राप्त हो जाता है।
जड़धारी कहते हैं कि शुरूआत में जब हम बीज बचाने की बात करते थे तो लोग मजाक उड़ाते थे लेकिन पदयात्रा, बैठक और आपसी संवाद के माध्यम से अब स्थिति बदल गर्इ है। अब मंडवा-झंगोरा की खेती को उत्तराखंड का गौरव मानने लगे हैं। उत्तराखंड आंदोलन में भी एक नारा प्रमुखता से लगा कि मंडवा-झंगोरा खाएंगे-उत्तराखंड बनाएंगे। उत्तराखंड सरकार के विश्राम गृहों में परंपरागत फसलों से बने भोजन मिलने लगे।
झंगोरा की खीर, मंडवा की रोटी, कुलथी का सूप व साग, परंपरागत सोयाबीन की चटनी आदि उपलब्ध हैं। इस भोजन को पर्यटकों द्वारा काफी पसंद किया जा रहा है।
अगर हम थोड़ा पीछे जाएं। वर्ष 1987 से वर्ष 1995 के बीच सोयाबीन का प्रचार-प्रसार काफी था। इसका बीज किट मुफ्त में बांटा जाता था। साथ ही रासायनिक खाद भी दिया जाता था। झंगोरा -मंडवा की जगह सोयाबीन की फसल ली जाने लगी थी। लेकिन अब स्थिति बदल रही है। सोयाबीन की फैक्ट्री बंद हो गर्इ है।
उत्तराखंड सरकार भी जैविक खेती का महत्व समझकर उसे बढ़ावा दे रही है। इसी के मददेनजर उत्तराखंड जैविक उत्पाद परिषद बनार्इ गर्इ है। जैविक गांव बनाने का काम किया जा रहा है। जिसके तहत खेती को पूरी तरह रासायनिक खाद से मुक्त किया जा रहा है। साथ ही जैविक उत्पादों की मार्केटिक की व्यवस्था भी की जा रही है।
यानी हमारे देश के अलग-अलग भागों में भौगोलिक परिस्थिति, आबोहवा, मिटटी-पानी के अनुकूल और मौसम के हिसाब से परंपरागत खेती की कर्इ पद्धतियां प्रचलित हैं। कहीं सतगजरा 7 अनाज, कहीं नवदान्या 9 अनाज तो कहीं बारहनाजा 12 की खेती पद्धतियां हैं।
खेती में ऐसी स्वावलंबी और विविधतापूर्ण पद्धतियां कर्इ मायनों में महत्वपूर्ण है। इससे एक तरफ खाध सुरक्षा होती है। पशुपालन होता है। फसलों के कीटों की रोकथाम होती है। और दूसरी तरफ मिटटी का उपजाऊपन बना रहता है। पर्यावरण का संरक्षण होता है और पारिस्थितकीय संतुलन बना रहता है। विविधता बनी रहती है, जीवन के लिए जरूरी है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है बारहनाजा जैसी खेती पद्धतियां का आज तक कोर्इ विकल्प नहीं है, जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।
बाबा मायाराम
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