
भारत भवन के खुलने में थोड़ी देर थी। मैं पास ही बड़ी झील के किनारे पत्थरों पर बैठ गया। दूर-दूर नीला पानी। नजरें जहां तक जातीं पानी ही पानी। दूर सफेद बगुलों की टोलियां बैठी हुर्इ। बहुत ही खूबसूरत नजारा।
भारत भवन में दोपहर 1 बजे गए और 3 बजे तक रहे। इस दौरान वहां के कुछ कलाकारों, कर्मचारियों व चित्रकला के विधार्थियों से मुलाकात की। पेंटिंग्स व मूर्तिकला तो देखी ही। मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन व अज्ञेय के कविता पोस्टर भी पढ़े। मुक्तिबोध के हस्तलिखित पत्र व कविताएं पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
मूर्तिकला के स्टूडियो में तीन चार युवा मिट्टी से आकृति उकेर रहे थे। एक उभरती मूर्तिकार जिसने हाल ही बड़ोदरा से फाइन आर्ट की स्नातक डिग्री हासिल की है, यहां रोज मूर्ति बनाने का अभ्यास कर रही थीं। मिट्टी को ठोंकना-पीटना, चाक पर चढ़ाकर घुमाना, फिर उसे मनचाहा आकार देना, इसमें वह व्यस्त थी। उसे ऐसा करते देखते ही रहे।
जे जे स्कूल बाम्बे से निकले तुषार मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी को तैयार कर रहे थे। वह कुछ समय के लिए इस स्टूडियो में मूर्तिकला सीख रहे हैं। इसी प्रकार एक युवती जिसने एक महिला की मूर्ति की बनार्इ थी, उसकी मुंदी आंखें को खोल रही थी और कानों को आकार दे रही थी।
यहां लोहे, पीतल, मिटटी व अन्य धातुओं से बनी मूर्तियों की प्रदर्शऩी लगी हुर्इ है, जो यहां एक नए वातावरण का निर्माण करती हैं। ऐसा लगता है, झील से जो हवा इनसे टकराती है, जिससे एक नर्इ ध्वनि निकलती है, वह सुरीली व मोहक है।
रूपंकर में चित्रों की प्रदर्शऩी लगी थी जिसमें जनगढ़सिंह श्याम, जो मंडला के आदिवासी कलाकार थे और भारत भवन से जुड़े हुए थे, के चित्र भी थे। जनगढ़ की स्मृति इसलिए भी आत्मीय है क्योंकि उन्होंने मेरी कहानी के लिए चित्र बनाए थे। यह कहानी वर्ष 1985 में एक पत्रिका में छपी थी।
आज उनके चित्र देखकर उसकी याद ताजा हो गर्इ, जो सुखद है। जनगढ़ के चित्र आदिवासी संस्कृति के प्रतीक हैं। उनकी पत्नी के बनाए चित्र भी देखे। मैंने छत्तीसगढ़ में आदिवासी चित्रकारों के जंगली जानवर, मढर्इ मेले, नृत्य, शिकार, पक्षियों के बहुत सुंदर चित्र देखे हैं, जो मेरे स्मृतियों में बसे हुए हैं।

रजा पकी उम्र फ्रांस से वतन लौट आए हैं, और सक्रिय हैं। वे इसी मध्यप्रदेश के माटी पुत्र हैं। उनके संस्मरण नरसिंहपुर में जगदीश भार्इ व रमेश तिवारी सुनाते हैं।
आज मुझे कलागुरू विष्णु चिंचालकर की भी याद आ गर्इ, जिन्होंने मुझे देखना सिखाया। एक कलादृष्टि दी, जिसे मैं अपने लेखन के जरिए सामने लाने की कोशिश करता रहा हूं। वे कबाड़ से जुगाड़ से बेहतर कृतियों को सृजित कर देते थे। ऐसा मैंने यहां के कलाकारों को बताया। मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्होंने कलागुरू विष्णु चिंचालकर का नाम नहीं सुना था।
दीपावली के बाद लगने वाले मढर्इ मेले, मोरपंख से बनी ढालें, देवताओं के चबूतरा, त्रिशूल, शादी-विवाह के समय लगने वाले खम्भ, घड़े, हाथी और मिटटी के बैलों को प्रदर्शित किया गया है।
चित्रकला कभी लोकमानस में व्याप्त थी। कुम्हारों की घड़े व सुराहियों पर अंकित चित्र, भित्ति चित्र, तुलसी कोट व घर के आले व आलमारियों में चित्रकारी, लकडि़यों के दरवाजों पर नक्काशियां जनसाधारण में आम बात थी। आदिवासियों में यह अब भी शेष है।
मैं लौटते समय में सोच रहा था क्या संस्कृति को बचाने के लिए नुमाइश ही काफी है? या इसे संग्रहालयों से बाहर जनजीवन में इसे स्थापित करने की जरूरत है। अगर ये सब बच्चों को दिखार्इ जाएं और कलाकार भी देखें तो नर्इ संस्कृति की मुहिम शुरू हो सकती है।
बाबा मायाराम
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