बैगा आदिवासियों के गांव में

Thursday, May 16, 20130 comments

छत्तीसगढ के मुंगेली जिले का एक गांव है तिलर्इडबरा। यहां के बाशिन्दे हैं बैगा आदिवासी। ऊंची पहाड़ी पर बसा यह गांव घने जंगलों के बीच सिथत है।

  हम यहां मंगलवार (14 मर्इ) की दोपहर को पहुंचे।  ऊंची-नीची व घुमावदार सड़कों से होते हुए हमारी एम्बुलेंस चल रही थी। दोनों ओर घना सरर्इ व साल का जंगल था। गडढे व खार्इयां थी। चलचित्र की तरह दृश्य तेजी से आंखों से ओझल होते जा रहे थे। पर हरियाली मन में बस गर्इ थी।

 यहां अपूर्व प्राकतिक सौंदर्य बिखरा हुआ है। साल व सरर्इ का हरा-भरा जंगल।  इसके अलावा, यहां सागौन, साजा, धावड़ा, कुसुम, तिंसा, हल्दू, तेंदू, हर्रा आदि हैं। तेज धूप होने के बावजूद मौसम में ठंडक थी। दिन में पसीना नहीं आया। बलिक हल्की ठंडी हवा कूलर से कहीं अच्छी थी।

 मोको पहाड़ी व नाले के किनारे बसे इस गांव की आबादी दो सौ से भी कम है। यहां के बैगा आदिवासी कद-काठी में कसे बदन वाले हैं। महिलाएं कौडि़यों की माला व कमर में करधन पहने हुर्इ थी। कौडि़यों की माला मोतियों की तरह चमक रही थी।

जंगल पर पूरा जीवन निर्भर है। थोड़ी बहुत खेती है, पर अधिकांश निर्भरता जंगल पर ही है। जंगल से चार, तेंदू, महुआ, आम, तीखुर कांदा, डोनची कांदा , बील, शहद और फुटू आदि मिल जाता है। सफेद मूसली, छीर बैहरी व बांस खड़ेरा बनाकर थोड़ा बहुत पैसा मिल जाता है।  पहले माहुल के पत्ता भी बिकता था। अब इस पर रोक है।

 यहां के घर दूर-दूर और खुले-खुले है। उसके आगे आंगन व पीछे बाडियां थी। घर साफ-सुथरे व गोबर से लिपे-पुते सुंदर दिख रहे थे। घरों की बाउन्ड्री लकड़ी से की गर्इ थी, शायद जंगली जानवरों से रक्षा के लिए बनार्इ हो। घरों में कटटल के पेड़ थे, जो फलों से लदे थे। मवेशी भी बड़ी संख्या में दिखार्इ दे रहे थे, जो खुले खेतों व जंगल में चर रहे थे। 

यहां पीने के पानी के लिए हैंडपंप के अलावा कुआं व मोको नाला है। मोको नाला सूख गया है लेकिन महिलाएं उसकी रेत में झिरियां खोदकर पानी निकालकर नहा रही थीं। यहां महिलाएं घरों में छीर बैहरी व बांस के खड़ेरा बनाती हैं। ढेकी में चावल कूटा जाता है। हाथ की आटा पीसने वाली चक्की भी दिखार्इ दी।

यहां बैगाओं की कर्इ पीढि़यां निकल गर्इं। वैसे तो सभी त्यौहार मनाते हैं पर छेरछेरा में विशेष उत्साह रहता है। आमतौर पर बहुत ही कम संसाधनों में जीने वाले लोगों का जीवन बहुत सरल है।

यहां के विष्णु बैगा ने बताया कि राशन दुकान से उन्हें 1 रूपये किलो चावल मिलता है। यहां छीर बैहरी बनाते हैं, जिसे कोटा के व्यापारी 5 रूपये एक बैहरी के हिसाब से यहां से ले जाते हैं और फिर ज्यादा में बेचते हैं।

इस गांव में 2005 से स्कूल शुरू हुआ है तब से एक ही शिक्षक है। मैंने उनसे पूछा एक शिक्षक पांच कक्षाओं को कैसे पढ़ाता है? उन्होंने कहा हमने दो समूहों में बच्चों को बांट लिया है। इसमें उनकी मदद उनकी पत्नी भी करती है।

जन स्वास्थ्य सहयोग की टीम ने लोगों का स्वास्थ्य परीक्षण किया। और पाया कि यहां चमड़ी की समस्या व ब्लड प्रेशर के मरीज हैं। डाक्टर के मुताबिक स्वच्छता की कमी व गुडाखु, बीड़ी, तंबाकू, शराब इसके कारण हो सकते हैं।

 इस गांव पर नया संकट यह है कि इसे अचानकमार टार्इगर रिजर्व के कारण विस्थापित करना है। ग्रामीण कह रहे थे उन्हें नहीं पता कि कब हटाएंगे।



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