बरमान मेला में लोगों का रेला

Friday, June 21, 20130 comments

इस बार पिछले रविवार को मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के बरमान मेले में जाना हुआ। वैसे तो यह मेला मकर संक्राति से शुरू होकर महीने भर तक चलता है। लेकिन मैं अपने परिवार के साथ चार दिन बाद पहुंचा। नरसिंहपुर में बहन के घर रात्रि विश्राम के बाद हम बरमान मेले के लिए रवाना हुए। दोपहर करीब 12 बजे के आसपास पहुंच गए। रास्ते में वाहनों की भारी आवक-जावक थी। बस, जीप, कार, मोटर साइकिल और पैदल यात्री नर्मदा मैया की ओर चले जा रहे थे। न टूटने वाली जनधारा नर्मदा की ओर बहती चली जा रही थी। बिना रुके, धीरे-धीरे यात्रियों की टोलियां अपने अपने झोले व पोटलियां उठाए खिंचती जा रही थी। नर्मदा मैया के जयकारे के साथ आगे बढ़ी जा रही थी। कुछ लोग अपने बच्चों को कंधों पर बिठाकर व उनकी अंगुली पकड़कर चल रहे थे। उन्हें कुछ लोग सावधानी रखने की हिदायत दे रहे थे। मेले में छोटे बच्चे इधर-उधर गुम हो जाते हैं, जो बाद में ढूंढने पर मिल जाते हैं।

हमारी गाड़ी को मेला स्थल से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर ही रोक लिया गया। क्योंकि मेला स्थल के नज़दीक वाहनों को रखने की व्यवस्था नहीं है। फिर हम नर्मदा घाट को उतार सावधानी से उतरे। क्योंकि साथ में मेरी बुजुर्ग मां थी। ठंड होने के बाद भी उसने कहा वह जाएगी ही। मां कहती है- नर्मदा मुझे बुला रही है, इसलिए जाउंगी। नर्मदा की रेत में मेला लम्बवत लगा हुआ था। रेतघाट में मनोरंजन मेला, बड़ा झूला, सर्कस, प्रदर्शनी, मौत का कुआं, छोटी-बड़ी घूमने वाली चकरी लगी थी। रंग-बिरंगी दुकानें लगी थी। सराफा, बर्तन, मनियारी (चूड़ी व सौंदर्य प्रसाधन सामग्री,) लाइन, लोहारी लाइन थी। ढोलक आदि वाद्य यंत्र भी थे।

मेला शब्द की व्युत्पत्ति मिल हुई है। यानी मिलना, देखना, साक्षात्कार करना। इसमें मेल-मिलाप करते हैं। चूंकि पहले बाजार दूरदराज हुआ करते थे और निश्चित दिन बाजार लगते थे। इसलिए मेले में बाजार लगता था। कुछ बुजुर्ग लोगों का कहना है कि हम यहां से सभी गृहस्थी का सामान ले जाते थे। मेले में मनोरंजन भी होता था। नाटक, नौटंकी, रामलीला, झूले आदि से मनोरंजन होता था। लेकिन अब बाजार लोगों के घर तक पहुंच गया है। अब पहले की अपेक्षा कम ख़रीददारी होती है। चूंकि ग्रामीण जनजीवन की गति धीमी होती है। इसलिए मेले व उत्सव उनमें उत्साह का संचार कर देते हैं। वे इसके लिए काफी तैयारी करते हैं। नए कपड़े पहनते हैं। धरउअल (संभालकर रखे हुए ) कपड़े निकालते हैं। खासतौर से महिलाओं व बच्चों में ज्यादा उत्साह रहता है, क्योंकि उन्हें घर गांव से निकलने का मौका कम मिलता है। मेले में बड़ी संख्या में युवा घूमते दिख जाते हैं। नवयुवतियां अपनी सहेलियों के साथ झूले झूलती व दुकानों पर अपने मन पसंद सामान खरीदती देखी जा सकती हैं। युवकों की टोलियां इधर-उधर मंडरा रही थीं।

पहले मेले में लोग परिवार के साथ बैलगाड़ियों से आते थे। अपनी तरह बैलों को भी रंग-बिरंगे फीतों से सजाया जाता था। उनके सींगों को रंग दिया जाता था। वे अपने साथ भोजन सामग्री भी लेकर आते थे और तीन-चार दिन तक रहते थे। और लौटते समय गृहस्थी का सामान लेकर जाते थे। लेकिन अब लोग मोटरगाड़ियों से आते हैं। और अब एक दिन में ही लौट जाते हैं। यहां रेत में पंडाल में लगे हुए थे जिनकी छांव में कोई विश्राम कर रहा था, तो कोई भोजन। बड़ी संख्या में लोग नर्मदा में स्नान कर रहे थे। हमने भी उसमें डुबकी लगाई। नर्मदा में छोटी-छोटी सुंदर नावें मनमोहक लग रही थी। तट पर बहुत बच्चे नर्मदा में चढ़ाने वाले पैसे बीन रहे थे। उन्होंने बताया इससे उनको अपने खर्च के लिए पैसे मिल जाते हैं।

अब भोजन बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। हम अपने साथ कंडे (गोबर के उपले ) लेकर आए थे। हमने कंडों की अंगीठी सुलगा ली। और बाटी के लिए आटा गूंथना शुरू किया। परंपरागत बाटी-भर्ता बनाने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती। न ज्यादा बर्तन लगते हैं और न ही ज्यादा मेहनत। जलती अंगीठी में ही भर्ता के लिए भटे व टमाटर डाल दिए। बरमान के बिना बीज के भटे भी प्रसिद्ध हैं। वे बहुत बड़े भी होते हैं। उन्हीं भटों में लकड़ी से छेदकर लहसुन भी भर दिए। अब मेरी मां, बहन और पत्नी भी स्नान कर आ गई। उन्होंने भी बाटी बनाने में हाथ बंटाना शुरू किया। हम सबने जल्द ही बाटियां और भर्ता तैयार कर लिया और फिर रेत में चादर बिछाकर पत्तल में स्वादिष्ट भोजन किया। इसके बाद हमने मेला घूमा।

लोहे के सामान कड़ाही, हंसिया, कुल्हाड़ी, खुरपी, चिमटा दिखा। इसके अलावा, ढोलक, टिमकी भी दिखीं। रसोई में काम आने वाले चौकी, बेलन, छीलनी व डिब्बे दिखे। रंग-बिरंगी चूड़ियां, झुमके, बिंदी व सौंदर्य प्रसाधन की सजी दुकानें देखी। रंगबिरंगे गुब्बारे व बांसुरी भी बिक रही थीं। मेले में एक सामूहिकता का भाव, पारस्परिक सौहार्द, सहयोग व आपसी सूझबूझ दिखाई दी ,जो हमारे गाँवों व समाज से ग़ायब होती जा रही है। मेला संस्कृति को बचाने की जरूरत है। इनमें गांव समाज की जीवनशैली की झलक दिखाई देती है। नर्मदा को साफ-सुथरा रखने की जरूरत है। इसे पॉलीथीन व कचरे डालने से बचाएं। मेले में राजनीतिक दलों व नेताओं के फोटो व बैनर खटके। नर्मदा को भी बचाने की जरूरत है। उसके सौंदर्य को कायम रखने की जरूरत है। यद्यपि उस पर कई बड़े-छोटे बांध बन गए हैं। बांधों के कारण परकम्मा दूभर हो गई।

अब नर्मदा पर नया संकट आ गया है। कुछ थर्मल पावर प्लांट व एक परमाणु बिजलीघर बनने वाला है। उसके पानी को शहरों में ले जाने की योजनाएं बन रही हैं। पानी के निजीकरण की कोशिशें की जा रही हैं। उसकी सहायक नदियां पहले ही दम तोड़ती जा रही हैं। अगर आगे नर्मदा खत्म होती है, तो उसके आसपास का जनजीवन व मेला संस्कृति भी खतरे में पड़ जाएगी। मैं सोच रहा था क्या हम नर्मदा व उसकी मेला संस्कृति को बचा सकते हैं जिससे हमें जीवनशक्ति मिलती है। उसके सौंदर्य को बचा पाएंगे। नर्मदा जो सबके दुख-दर्द हरती है, क्या उसके दुख को और संकट को हम दूर कर पाएंगे?
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