मज़े का स्कूल

Tuesday, July 30, 20131comments

सुबह का समय है। कुछ लड़के कंचे खेल रहे हैं, कुछ झोपड़ों से झांक रहे हैं। लड़कियां हैंडपंप पर पानी भर रही हैं, महिलाएं बर्तन मांज रही हैं, साफ-सफाई कर रही हैं। यह दृश्य है मध्यप्रदेश के हरदा शहर की एक झुग्गी बस्ती का, जहां मैं कुछ समय पहले इस अनौपचारिक स्कूल को देखने गया था, जो भवन के अभाव में पेड़ के नीचे लग रहा है।

यह हरदा की एक झुग्गी दूध डेयरी बस्ती का स्कूल हैं, जहां अत्यंत निर्धन लोग रहते हैं। इनमें से कोई हाथ ठेला चलाता है, कोई खुली मजदूरी करता है। कोई हम्माली करता है और कोई मिस्त्री का काम। बंजारा समुदाय के लोग भी मजदूरी करते हैं। इस बस्ती की सीलन भरी संकरी गलियों और टाट व पालीथीन से बने झोपड़ों को देखकर यहां की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।

यहां के बच्चे भी अलग-अलग काम-धंधों  में संलग्न हैं। कोई होटल पर काम करता है, कोई पन्नी बीनता है, कोई गटर में से कचरा उठाता है तो कुछ मां-बाप के काम में हाथ बंटाता है। लड़कियां सम्पन्न घरों में साफ-सफाई और झाडू-पोंछा का काम करती हैं। ऐसे में पढ़ाई पीछे छूट जाती है।

लेकिन इन बच्चों की पढ़ाई के लिए एक सकारात्मक प्रयास किया जा रहा है। यह सरकारी नहीं, बल्कि यह अनौपचारिक व गैर सरकारी प्रयास है। इसे एक शिक्षिका और एक गैर सरकारी संगठन ने शुरू किया है। नगर पालिका भी इसमें पूरा सहयोग कर रही है।

हरदा के पास उड़ा गांव में पदस्थ शिक्षिका शोभा वाजपेयी का इस स्कूल को शुरू करने से लेकर उसके संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका है। इस स्कूल के लिए वे खुद समय देती है, संसाधन जुटाने में मदद करती हैं और स्कूल के दैनंदिन समस्याओं को हल करने में अहम भूमिका निभाती हैं। इसके अलावा, उनका बच्चों से भी सीधा संपर्क है। वे उनके दुख-दर्द की साझीदार हैं। 

यहां के बच्चे भी अलग-अलग काम-धंधों में संलग्न हैं। कोई होटल पर काम करता है, कोई पन्नी बीनता है, कोई गटर में से कचरा उठाता है तो कुछ मां-बाप के काम में हाथ बंटाता है। लड़कियां सम्पन्न घरों में साफ-सफाई और झाडू-पोंछा का काम करती हैं। ऐसे में पढ़ाई पीछे छूट जाती है। पहले यह स्कूल नगर पालिका के स्कूल भवन में चलता था। लेकिन बस्ती से थोड़ा दूर होने और सड़क पार करने के कारण बच्चों को आने-जाने में असुविधा होती थी। इसलिए बस्ती में ही एक पेड़ के नीचे स्कूल लगाना पड़ रहा है। बारिश के मौसम में अक्सर स्कूल नहीं लग पाता।

शोभा वाजपेयी और सिनर्जी संस्थान के विमल जाट कहते हैं कि ये बच्चे सामान्य बच्चे नहीं हैं। कुछ नशे के आदी थे, कुछ आपराधिक प्रवृत्तियों में संलग्न थे। अब उन्हें स्कूल तक लाना और पढ़ाना,एक चुनौती है। लेकिन धीरे-धीरे हम ऐसा वातावरण बना रहे हैं जिससे उनमें सुधार आए।

इसके लिए कई तरह के प्रयास करते हैं। खेल-खेल में और गतिविधि आधारित शिक्षा देने की कोशिश की जाती है जिसमे बच्चों को मजा आए और वे पढ़ाई की ओर उन्मुख हों।

नये शिक्षा अधिकार विधेयक की काफी चर्चा है। स्कूलों में दर्ज संख्या भी बढ़ रही है। लेकिन अब भी बहुत बड़ी चुनौती दूध डेयरी बस्ती जैसे बच्चों को पढ़ाने की है। देश में गांव से शहरों की ओर जनधारा बह रही है। शहरों में बड़ी तादाद में झोपड़ पट्टियां बढ़ रही हैं। न इन्हें रहने लायक एक छत नसीब है और न ही शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं। हमारे यहां अब भी निरक्षरों की बडी संख्या है। स्कूलों से ड्राप आउट ज्यादा है।  मैं सोच रहा था क्या हम गरीब बच्चों को पढ़ाने की चुनौती स्वीकार कर सकते हैं?

बाबा मायाराम

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July 31, 2013 at 11:11 AM

निश्चित तौर पर शोभा बाजपेयी जी बधाई की पात्र हैं . सच को उजागर करता लेख . धन्यवाद .

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