बाढ़ का संकट बड़ा विकट

Monday, August 26, 20133comments

मध्यप्रदेश में हाल ही हुई तेज बारिश ने बाढ़ की स्थिति को विकराल बना दिया। होशंगाबाद जिले में नर्मदा, तवा और छोटी-बड़ी कई नदियां उफान पर बनी रहीं। नर्मदा पर बने बरगी बांध, तवा नदी पर बने तवा बांध व बारना नदी पर बने बारना बांध के गेट खोलने से कई गांव जलमग्न हो गए। कुछ जान-माल की हानि भी हुई। निचली बस्तियों के लोगों को अपने घरों से हटाकर राहत शिविरों में रखा गया। हरे-भरे खेत पानी में डूब गए। नेताओं ने हवाई दौरा कर बाढ़ क्षेत्रों का जायजा लिया।

होशंगाबाद जिले में पिछले दिनों से हो लगातार बारिश से नदी-नालों का जलस्तर बढ़ गया है। नर्मदा खतरे के निशान से ऊपर है। जिले के पिपरिया कस्बे के पास 20 अगस्त को नर्मदा पर बने सांडिया पुल से 3 फुल ऊपर पानी था। और पचमढ़ी के पास देनवा नदी के पुल से 10 फुट ऊपर पानी जा रहा था।  पलकमती, मछवासा, दुधी, ओल आदि नदियां पूरे उफान पर रहीं।

 नरसिंहपुर की शक्कर, सींगरी, बारू रेवा,शेढ आदि में भी बाढ़ आ गई। इसी प्रकार हरदा जिले की टिमरन, कालीमाचक, गंजाल, हंडली, सदानी, आदि नदियों में बाढ़ के कारण कई गांव इससे घिर गए। इस बीच खबर है इंदिरा सागर और सरदार सरोवर बांध के कई गांव बाढ़ की चपेट में आ गए हैं।

अक्सर जब आखिर बाढ़ आती है तब हम जागते हैं। इसे प्राकृतिक आपदा मानकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। लेकिन क्या यह बाढ़ इसी साल आई है? यह तो प्रायः हर साल आती है। लेकिन जब बाढ़ आती है तभी हम जागते हैं। अखबार- टीवी चैनल बाढ़ग्रस्त इलाकों में पहुंच जाते हैं। और सीधे लाइव खबरें दिखाते हैं। उत्तराखंड में आई भयानक बाढ़ में हद ही हो गई जब एक टीवी पत्रकार एक बाढ़ पीडि़त के कंधे पर बैठकर शॉट ले रहा था।

इस इलाके की ज्यादातर नदियां दक्षिण से सतपुड़ा पहाड़ से निकलती हैं और नर्मदा में आकर मिलती हैं। सतपुड़ा यानी सात पुड़ा। सतपुड़ा की घाटी अमरकंटक से शुरू होकर पश्चिमी घाट तक जाती है। इससे कई नदियां निकलती हैं जिनके नाम मोहते तो है ही, वे उनकी महिमा बखान भी करते हैं।

नदियों के जल-भराव, भंडारण और पानी को रोकने और सहेजने के परंपरागत ढांचों को फिर से खड़ा करना चाहिए। पर्यावरण का संरक्षण करना चाहिए। पेड़ों को कटने से बचाना चाहिए और नए पेड़ लगाना चाहिए। क्योंकि यही पेड़ पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते हैं। मिट्टी-पानी के संरक्षण वाली जैविक खेती की ओर बढ़ना चाहिए, क्योंकि रासायनिक खेती से मिट्टी की जलधारण क्षमता कम हो जाती है। होशंगाबाद जिले की दुधी, तवा, देनवा, पलकमती, मछवासा, ओल, कोरनी आदि सभी नदियां सतपुड़ा से निकली हैं। नाम भी बहुत अच्छे हैं। दुधी, दूध जैसा साफ पानी। नरसिंहपुर जिले में शक्कर नदी है़,शक्कर यानी मीठा पानी। लेकिन अब ये सदानीरा नदियां बरसाती नाले में बदल गई हैं। बरसात में ही प्रकट होती है बाकी समय गायब हो जाती हैं। दुधी कभी बारहमासी नदी थी। साल भर पानी रहता था। अब मार्च अप्रैल तक आते-आते सूख जाती है। यही हाल पिपरिया कस्बे की मछवासा व सोहागपुर की पलकमती का भी है।

सतपुड़ा और विन्ध्यांचल के बीच से बहती है नर्मदा। दक्षिण में सतपुड़ा है और उत्तर में नर्मदा। सतपुड़ा पहाड़ है यानी ऊंचा, वहां से नदियां सर्पाकार बहती हुई नर्मदा में आकर मिलती हैं। लेकिन ये नदियां तो पहले से हैं, बाढ़ भी पहले से आती है, फिर अब क्यों बाढ़ की समस्या बढ़ रही है।

बाढ़ के कई कारण हैं। अधिक वर्षा तो है, बांध भी बड़ा कारण है। जिन बांधों का एक फायदा कभी बाढ़ नियंत्रण गिनाया जाता था, अब वही बांध बाढ़ के कारण बनते जा रहे हैं। नर्मदा पर कई बांध बन गए हैं। नर्मदा पर बने बरगी बांध , इंदिरा सागर बांध और ओंकारेश्रर के पानी छोड़ने और उसके बैक वॉटर के कारण नर्मदा में मिलने वाली नदियों का पानी आगे न जाने के कारण पानी गांवों में या खेतों में घुस जाता है, जो परेशानी का सबब बन जाता है।

पानी के अध्ययन में लंबे अरसे से जुड़े रहमत कहते हैं कि पहले बांध का एक फायदा बाढ़ नियंत्रण  बताया जाता है लेकिन वही बांध बाढ़ के कारण बन गए हैं। बांधों से बाढ नियंत्रण तभी संभव है जब बांधों को खाली रखा जाए लेकिन यह तो नहीं हो सकता। इसलिए जब बारिश होती है, तब नदी-नाले उफान पर होते हैं। और बांध भी लबालब होते हैं, इसलिए बाढ़ की स्थिति निर्मित होती है।

 सामाजिक कार्यकर्ता विमल जाट कहते हैं कि  जबसे इंदिरा सागर बांध बना है तबसे बाढ़ का खतरा बढ़ गया है और इससे न केवल ग्रामीण बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी दहशत व्याप्त है। उनका मानना है कि तवा-बरगी बांध का पानी छोड़ना और इंदिरा सागर का बैक वॉटर ही इस कारण का प्रमुख कारण माना जा सकता है। 

इसके अलावा, सर्पाकार सरपट भागने वाली नदियों की रेत धडल्ले से उठाई जा रही है, जो पानी के बहाव को नियंत्रित करती है। रेत पानी को सोखकर अपने में जज्ब करके रखती है, वह स्पंज की तरह है। वह भूगर्भ के जलस्तर को भी शुद्ध करने का काम करती हैं। वैसे तो  नदियां अपना मार्ग बदलती रहती हैं लेकिन रेत खनन के कारण भी नदियां मार्ग बदल देती हैं, वे वापस नहीं लौटतीं। या जिन नालों व नदियों के बीच में निर्माण कार्य हो जाते हैं, तब भी बाढ़ की स्थिति विकट हो जाती है।

 नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को अवरूद्ध करने, उनके किनारों पर अतिक्रमण करने और जल निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण भी बाढ़ की स्थिति पैदा करती हैं। कुछ बरस पहले मुंबई में बाढ़ का प्रमुख कारण वहां की मीठी नदी के रास्ते को बदलना और उसके बीचोंबीच व्यावसायिक परिसर का निर्माण करना था। 

नदियों के किनारे पहले बहुत पेड़ पौधे व हरी घास हुआ करती थी। तटों के आसपास की पड़ती जमीन पर झाडि़यां होती थी। जैसे दुधी नदी के किनारे कुहा अर्जुन व गूलर के पेड़ थे। और कई तरह की  झाडि़यां थीं। उनसे बाढ़ तो नहीं रूकती थी, लेकिन पानी का वेग कम हो जाता था। अब दुधी में बाढ़ आती है तो उसका पानी नदी किनारे के गांवों में घुस जाता है। जबकि वही दुधी गर्मी के दिनों में सूख जाती है।  

सतपुड़ा अंचल के साहित्यकार कश्मीर उप्पल का कहना है कि पहले नदियों की बाढ़ के साथ जो मिट्टी आती थी, वो हमारे खेतों को  उपजाऊ बनाती थी, लेकिन अब हमें रासायनिक खादों के कारण उसकी जरूरत रही नहीं। अब बाढ़ कहर ढाती है। इसका बड़ा कारण हमने छोटे-छोटे नदी-नालों के बहाव को रोक दिया है। इसलिए थोड़ी भी बारिश होती है तो शहरों में पानी भर जाता है। इटारसी शहर का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा जबसे यहां कांक्रीट की बडे़-बड़े भवन और इमारतें खड़ी हुई हैं तबसे यहां बाढ़ आने लगी है। हम ही बाढ़ के रास्ते में आ गए हैं। वो तो बरसों से आती रही है लेकिन इतनी तबाही पहले कभी नहीं हुई। न ही शहरों में इतना पानी भरा।

बाढ़ के लिहाज से सबसे आशंका वाले उत्तर बिहार की कई नदियां, जो ज्यादातर हिमालय से निकलती हैं, के पानी के सहेजने के परंपरागत ढांचे यानी तालाब, बंधान, कुएं, बाबड़ी सब खत्म हो गए हैं, इसलिए वहां बाढ़ का कई गुना खतरा बढ़ गया है। इसी प्रकार सतपुड़ा से निकलने वाली नदियों में बाढ़ का कारण यही माना जा सकता है। यहां भी हर गांव में तालाब थे, अब दिखाई नहीं देते।

मंथन अध्ययन केंद्र से जुडे़ रहमत कहते हैं कि बाढ़ का एक कारण और है और वह कैचमेंट एरिया का प्रवाह इंडेक्स कम होना। यानी जो घना जंगल था, वो कम हो गया। जंगल ही बारिश के पानी के प्रवाह को कम रखते थे या रोकते थे। अब जंगल कम हो गया इसलिए सीधे बिना रूके सरपट पानी खेतों व गांवों में चला आता है। इसके अलावा, रासायनिक खेती भी एक कारण है। यह खेती मिट्टी की जलधारण क्षमता को कम कर देती है। उसमें पानी पीने या जज्ब करने की क्षमता कम हो जाती है।

पहले सूखा और बाढ़ की स्थिति कभी-कभार  ही उत्पन्न हुआ करती थी। अब यह समस्या लगभग नियमित और स्थायी हो गई है। हर साल सूखा और बाढ़ का कहर हमें झेलना पड़ रहा है। इस संकट को भी किसानों को लगभग सहना पड़ता है।

सूखे की वजह से गांवों से शहरों की ओर लोग भागते हैं पर बाढ़ में तो भागने का मौका भी नहीं मिलता। हर साल बाढ़ से लोग मरते हैं। उनकी फसलें जलमग्न हो जाती हैं। कई गांवों से संपर्क टूट जाता है। प्रशासन फौरी तौर पर राहत वगैरह की घोषणा करता है, कहीं कुछ देता भी है।

सिनर्जी संस्था के विमल जो आपदा प्रबंधन से जुड़े हैं, का कहना है बाढ़ से निपटने की पूर्व तैयारी होनी चाहिए। कहने को तो आपदा प्रबंधन का ढांचा राष्ट्रीय स्तर से लेकर जिला स्तर तक है लेकिन वह व्यवस्थित ढंग से काम नहीं करता। प्रशासन की पहुंच शहरी क्षेत्रों तक ही है, सुदूर अंचल तो राहत से वंचित रह जाता है। इसके अलावा, स्थायी उपायों की ओर भी काम करना चाहिए। नदी तटों के किनारे वृक्षारोपण, सुदूर गांवों के लोगों के लिए अनाज रखने के लिए गोदाम जैसे प्रयास भी किए जाने चाहिए।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बाढ़ पीडि़तों को राहत पैकेज देने जैसे फौरी उपायों के अलावा इसे रोकने के स्थायी उपायों की ओर बढ़ना चाहिए जिससे ऐसा ढांचा विकसित हो जिसमें बाढ़ की विभीषिका को कम किया जा सके। पहले भी बाढ़ आती रही है, पर समाज से इससे अपनी बुद्धि और कौशल से निपटता रहा है। लेकिन हम उन तरीकों को भुला दिया है। परंपरागत ढांचों को खत्म कर दिया।

इसलिए हमें नदियों के जल-भराव, भंडारण और पानी को रोकने और सहेजने के परंपरागत ढांचों को फिर से खड़ा करना चाहिए। पर्यावरण का संरक्षण करना चाहिए। पेड़ों को कटने से बचाना चाहिए और नए पेड़ लगाना चाहिए। क्योंकि यही पेड़ पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते हैं। मिट्टी-पानी के संरक्षण वाली जैविक खेती की ओर बढ़ना चाहिए, क्योंकि रासायनिक खेती से मिट्टी की जलधारण क्षमता कम हो जाती है।

इसके अलावा, हमें बाढ़ से निपटने के लिए पहले से तैयारी करनी चाहिए। नदियों के किनारे रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाना, उन्हें बुनियादी सुविधाएं मुहैया करना भी जरूरी है। ये लोग कहीं पेड़ों के नीचे व मंदिरों में शरण लेते हैं, गीले कपड़े पहने रात काटते हैं, भूखे रहते हैं। ऐसी नौबत नहीं आनी चाहिए।  नावें, तैराक व राहत शिविरों की व्यवस्था होना चाहिए।ऐसे उपायों को अपनाएंगे तभी बाढ़ नियंत्रण हो पाएगा वरना सिर्फ खबरिया चैनलों पर बाढ़ की खबर से हम बेखबर हो जाएंगे और बाढ़ की समस्या बनी रहेगी। 
-बाबा मायाराम 
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Anonymous
August 27, 2013 at 12:42 AM

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