मुख्यधारा

Friday, September 27, 20131comments

हमारी ज़मीन के
नीचे की दुनिया के देवताओं ने
जब-जब भेजा उन्हें
वे नज़र आए
हमारे बाज़ारों में
सिर्फ नमक और मिट्टी का तेल खरीदने के वास्ते

उन्हें चढ़ना आता था
फुर्ती से
ऐसे-ऐसे ऊंचे दरख़्तों पर
जो बड़े हुए
बगैर रोशनी के और
जिन्हें मर जाना था
बिना सूरज को जाने

तब जबकि हुआ करता
घूमती हुई इस दुनिया का मुंह
हर पल
अक्षुण्ण ऊर्जा स्रोत के सामने

न अक्षर-न कागज़-न कलम
अबूझ थीं उनकी बोलियां
जिसमें घुले
शहद को चुरा सकना
कभी भी नामुमकिन था
सभ्यता के रीछों के लिए

आग बराबर मौजूद थी
उनके भीतर
अपनी असली शक्ल में
उसकी आंच में दमकती थी
उनकी त्वचा
उनके हिसाबों में
स्वर्ग-नर्क के नाम नहीं थे कहीं भी

वे जीते थे
पृथ्वी के लिए
चांद के लिए
आग के लिए
झरनों-नदियों के लिए
फूल के लिए
तितली के लिए
संभोग के लिए
और महुआ के लिए
और गंध के लिए
और सुरूर के लिए

और तब
उनके गिर्द घूमती हुई आती दुनिया
और हतप्रभ देखती रह जाती
ऐसा नृत्य जहां
आग की हर लपट पर
एक थाप होती
जिसमें थिरकते कदम
जो देखे गए अंकित हुए
आदिम गुफाओं में

यह आग के बाद
आग की कहानी कहना था ।

-राग तेलंग
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October 7, 2013 at 4:54 PM

'आग के बाद/ आग की कहानी' का अनुभव हालाँकि वर्तमान में उपजता है, किंतु अनुभव के घेरे में आने पर जैसे समूचे अतीत को इस कविता में एक नई तरतीब और श्रृंखला में पिरो दिया गया है । वर्तमान के आईने में अतीत का पहचाना चेहरा भी कुछ अजनबी-सा जान पड़ता है जो अपने में भयाकुल अनुभव हो सकता है । अतीत और वर्तमान के उपादानों के बीच जुड़ते स्मृति-स्थलों की पहचान को रेखांकित करने के कारण ही राघवेंद्र जी की यह कविता उल्लेखनीय बन पड़ी है |

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