बुजुर्गों को ठुकराता आधुनिक समाज

Wednesday, September 25, 20130 comments

खबर है कि जापान के वैज्ञानिक एक ऐसे रोबोट के विकास में लगे हैं, जो बूढ़े  लोगों की उसी तरह मदद व सेवा करेगा जैसे एक इंसान करता है। वहां की बढ़ती हुई आबादी के लिए इसे वरदान बताया जा रहा है। विज्ञान और तकनालाजी के आधुनिक चमत्कारों की श्रृंखला में यह एक और कड़ी जुड़ने वाली है।

 क्या सचमुच यह वरदान है? क्या फिर आधुनिक जीवन और आधुनिक सभ्यता की एक और विडंबना ? क्या इससे जापान के बूढ़े लोगों की समस्याएं हल हो सकेगी? वृद्धावस्था में अपने नजदीकी परिजनों द्वारा देखभाल, स्नेह व सामीप्य की जो जरुरत होती है, क्या वह पूरी हो सकेगी? क्या उनका अकेलापन व बैगानापन दूर हो सकेगा? क्या एक मशीन इंसान की जगह ले सकेगी ? इन सवालों को लेकर एक बहस छिड़ गई है ?

 जापान और तमाम संपन्न देशों में यह सचमुच एक संकट है। नए जमाने में दंपत्तियों द्वारा कम बच्चे पैदा करने और जन्म दर कम होने से वहां की आबादी में बुजुर्गों का अनुपात बढ़ता जा रहा है, लेकिन उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। बढ़ी तादाद में ये बुजुर्ग अब अकेले रहने को मजबूर हैं या फिर उन्हें वृद्धाश्रमों में भेज दिया जाता है। वहां नर्सें व अन्य वैतनिक कर्मचारी उनकी देखभाल करते हैं। उनके परिजन बीच-बीच में फोन कर लेते हैं। और कभी कभी जन्मदिन या त्योहारों पर गुलदस्ता  लेकर उनसे मिलने चले आते हैं। इन बूढ़ों की जिदंगी घोर एकाकीपन, खालीपन व बोरियत से भरी रहती है। उनके दिन काटे नहीं कटते।

इधर मंदी व आर्थिक संकट के कारण ये वृद्धाश्रम भी कई लोगों की पहुंच से बाहर हो रहे हैं। इन देशों में श्रम महंगा होने के कारण निजी नौकर रखना भी आसान नहीं है। इसलिए रोबोट जैसे समाधान खोजे जा रहे हैं, हालांकि यह रोबोट भी काफी महंगा होगा और वहां के साधारण लोगों की हैसियत से बाहर होगा।

नार्वे-स्वीडन में पिछले कुछ समय से बुजुर्गों को स्पेन के वृद्धाश्रमों में भेजने की प्रवृति शुरु हुई है, क्योंकि वहां श्रम अपेक्षाकृत सस्ता होने के कारण कम खर्च आता है। यानी एक तरह से वृद्धों की देखभाल की भी आउटसोर्सिंग का तरीका पूंजीवादी वैश्वीकरण ने निकाल लिया है।

कुछ साल पहले फ्रांस में एकाएक ज्यादा गर्मी पड़ी, तो वहां के कई बूढ़े लोग अपने फ्लेटों में मृत पाए गए। उनके पास कोई नहीं था, जो उनको संभालता या अस्पताल लेकर जाता । कुल मिलाकर , आधुनिक समाज में बूढ़े एक बोझ व बुढ़ापा एक अभिशाप बनता जा रहा है।

आधुनिक जीवन का यह संकट अमीर देशों तक सीमित नहीं है। यह भारत जैसे देशों में भी तेजी से प्रकट हो रहा है। संयुक्त परिवार टूटने, बच्चों की संख्या कम होने तथा नौकरियों के लिए दूर चले जाने से यहां भी बूढ़े लोग तेजी से अकेले  व बेसहारा होते जा रहे हैं।

खास तौर पर मध्यम व उच्च वर्ग में यह संकट ज्यादा गंभीर है। बच्चे तो  उच्च शिक्षा प्राप्त  करके नौकरियों  में दूर महानगरों में या विदेश में चले जाते हैं, जिनकी सफलता की फख्र से चर्चा भी मां/बाप करते हैं। किंतु बच्चों की यह सफलता उनके बुढ़ापे की विफलता बन जाती है। बहुधा जिस बेटे को बचपन में फिसड्डी, कमजोर या नालायक माना गया था, वही खेती या छोटा-मोटा धंधा करता हुआ  बुढ़ापे का सहारा बनता है।


पहले नौकरीपेशा लोगों के लिए पेंशन व भविष्य निधि से कम से कम बुढ़ापे में आर्थिक सुरक्षा रहती थी। किंतु  अब नवउदारवादी व्यवस्था में ठेके पर नौकरियों के प्रचलन से ये प्रावधान भी खत्म हो रहे है। इस बजट में आयकर की छूट के लिए आयु 65 से घटाकर 60 वर्ष करने से मध्यमवर्गीय वृद्धों को कुछ राहत मिलेगी। किंतु 80 वर्ष के ऊपर के वृद्धों के लिए छूट सीमा 5 लाख रु. करना एक चालाकी है।

आखिर देश मे कितने बुजुर्ग 80 से ऊपर के होंगे जिनकी आय 5 लाख रु. तक होगी ? गरीब वृद्धों  के लिए वृद्धावस्था पेंशन की राशि नए बजट में बढ़ाकर 400 रु. प्रतिमाह की गई है, किंतु यह भी महंगाई के इस जमाने में ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। भारत में वृद्धाश्रमों का अभी ज्यादा प्रचलन नहीं है।


ऐसा नहीं है कि यह मुसीबत महज बूढ़ों की है। नगरों में रहने वाले जिन परिवारों में महिलाएं काम पर जाती हैं,  वहां छोटे बच्चों की देखरेख एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। बार-बार आजमाए जाते नौकर-नौकरानी भी इस समस्या को पूरी तरह से हल नहीं कर पा रहे हैं। इससे समझ में आता है कि पुराने संयुक्त परिवारों में बच्चे और बूढ़े एक दूसरे के पूरक थे। बच्चों की देखरख के रुप में बुजुर्गों के पास भी काम व दायित्व होता था और बच्चों को भी उनकी छत्रछाया में देखभाल, प्यार, शिक्षा व संस्कार मिलते थे।

वयस्कों को भी बच्चों की जिम्मेदारी से कुछ फुर्सत, सलाह, मार्गदर्शन व बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ मिल जाता था। मिंया-बीवी के झगड़े भी उनकी मौजूदगी में नियंत्रित रहते थे और विस्फोटक रुप धारण नहीं करते थे।

संयुक्त  परिवार में बचपन से सामंजस्य बिठाने, गम खाने, धीरज रखने व बुजुर्गों का आदर करने का प्रशिक्षण होता था। आज इसके अभाव में नई पीढ़ी में उच्छृंखलता, व्यक्तिवाद व स्वार्थीपन बढ़ रहा है। विकलांगों , विधवाओं, परित्यक्ताओं , बूढ़ों  और अविवाहितों  के लिए भी ये परिवार एक तरह की सुरक्षा प्रदान करते थे, जिसकी भरपाई वृद्धाश्रमों या सामाजिक सुरक्षा की सरकारी योजनाओं से संभव नहीं है।

यदि कोई भाई कमाता नहीं है या कमाने में कमजोर है, संयासी बन गया या किसी मुहिम का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गया, तो भी संयुक्त परिवार में उसके बच्चों का लालन-पालन हो जाता था।

संयुक्त परिवार में सब कुछ अच्छा था, ऐसा नहीं है। छुआछूत, परदा, बेटियों के साथ भेदभाव जैसी रुढि़यां व प्रतिबंध उनमें हावी रहते थे और उनको तोड़ने में काफी ताकत की जरुरत होती थी। आजादख्याल लोग उनमें घुटन महसूस करते थे। सबसे ज्यादा नाइंसाफी बहुओं के साथ होती थी। सामंजस्य बिठाने का पूरा बोझ उन पर डाल दिया जाता था। सास-बहू के टकराव तो बहुचर्चित है, जो अब आधुनिक भोग संस्कृति व लालच के साथ मिलकर बहुओं को जलाने जैसी वीभत्स प्रवृतियों का भी रुप ले रहे हैं। कुछ नारीवादी व अराजकतावादी कह सकते हैं कि संयुक्त परिवार की संस्था पितृसत्ता का गढ़ थी और वह जितनी जल्दी टूटे, उतना अच्छा है।
   

कुल मिलाकर , संयुक्त परिवार की पुरानी व्यवस्था को आदर्श नहीं कहा जा सकता है। उसमें कई दिक्कतें थी। किंतु अफसोस की बात है कि उसकी जगह जो नई व्यवस्था बन रही है, उसमें और ज्यादा त्रासदियां है। हम खाई से निकलकर कुए में गिर रहे हैं। बीच का कोई नया रास्ता निकालने की कोशिश ही हमने नहीं की, जिसमें समतावादी-लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ सामाजिक क्रांति के जरिये संयुक्त परिवार के दोषों को दूर करते हुए भी उनकी खूबियों व सुरक्षाओं को बरकरार रखा जाता। जिसमें अपनी पूरी जिंदगी परिवार, समाज व देश को देने वाले बुजुर्गों के जीवन की संध्या को सुखी, सुकून भरा व सुरक्षित बनाया जा सकता हो।

यह कहा जा सकता है कि भूमंडलीकरण के नए जमाने में गतिशीलता बढ़ने से परिवारों का बिखरना लाजमी है। किंतु तब क्या इस पूरे आधुनिक विकास व भूमंडलीकरण पर भी पुनर्विचार करने की जरुरत नहीं है ? कई अन्य पहलुओं के साथ-साथ बूढ़ों के नजरिये से भी क्या एक विकेन्द्रीकृत स्थानीय समाज ज्यादा बेहतर व वांछनीय नहीं होता ?

अभी तक आधुनिकता की आंधी में बहते हुए इन सवालों पर हमने गौर करने की जरुरत ही नहीं समझी। किंतु यदि सामाजिक जीवन को आसन्न संकटों एवं विकृतियों से बचाना है तथा सुंदर व बेहतर बनाना है, तो इन पर मंथन करने का वक्त आ गया है।
-सुनील
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